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धारा 34 क्या है | धारा 34 की सजा | धारा 34 आईपीसी | Section 34 IPC In Hindi

धारा 34 क्या है | धारा 34 की सजा | धारा 34 आईपीसी | Section 34 IPC In Hindi सामान्य आशय को अग्रसर करने में कई व्यक्तियों द्वारा किये गये...

धारा 34 क्या है | धारा 34 की सजा | धारा 34 आईपीसी | Section 34 IPC In Hindi


सामान्य आशय को अग्रसर करने में कई व्यक्तियों द्वारा किये गये कार्य- जब कि कोई आपराधिक कार्य कई व्यक्तियों द्वारा अपने सब के सामान्य आशय को अग्रसर करने में किया जाता है, तब ऐसे व्यक्तियों में से हर व्यक्ति उस कार्य के लिए उसी प्रकार दायित्व के अधीन है, मानो वह कार्य अकेले उसी ने किया हो ।

इस धारा में आपराधिक प्रकरणों में संयुक्त दायित्व का सिद्धान्त प्रतिपादित किया गया है जिसके अनुसार जब अनेक व्यक्ति मिलकर अपने सामान्य आशय को अग्रसर करने के लिए कोई आपराधिक कार्य करते हैं, तो उनमें से प्रत्येक उस अपराध-कार्य के लिए उसी प्रकार दायित्वाधीन है, मानो कि वह कार्य उसने अकेले ही किया हो ।

यह धारा उन मामलों में लागू होती है जहाँ यह स्थापित हो जाता है कि किसी अपराध कार्य को करने में अनेक व्यक्तियों का सामान्य आशय विद्यमान था । इससे स्पष्ट है कि यह धारा संयुक्त आपराधिक दायित्व के सिद्धान्त के आधार पर अधिनियमित की गई है ।

यह धारा साक्ष्य का एक नियम (Rule of evidence) मात्र है तथा इसके अधीन किसी पृथक सारवान अपराध का सृजन नहीं होता है ।

चूँकि सामान्य आशय का प्रत्यक्ष सबूत प्राय: उपलब्ध नहीं होता इसलिए इसका निष्कर्ष साबित किये गए तथ्यों एवं परिस्थितियों से ही निकाला जा सकता है । जहाँ अभियुक्त की दोषसिद्धि धारा 34 के साथ पठित धारा 302 के अन्तर्गत की जाती है, तो इसका अर्थ यह होता है कि अभियुक्त उस कृत्य के लिए दायी है जिसके कारण मृतक की मृत्यु कारित हुई है, मानो कि उसने स्वयं ही वह कृत्य किया हो ।

धारा 34 का मुख्य उद्देश्य यह है कि जहाँ अनेक व्यक्तियों द्वारा संयुक्त रूप से किये गये अपराध के मामले में यह विभेद करना कठिन हो, या यह प्रमाणित करना कठिन हो कि उनमें से प्रत्येक ने उस अपराध में क्या और कितना भाग लिया है, तो उनमें से प्रत्येक को दोषी माना जाएगा ।

ऐसे सामान्य आशय वाले प्रकरणों में प्रत्येक को दोषी माने जाने का कारण यह है कि सह-अपराधियों की उपस्थिति से वास्तव में अपराध करने वाले व्यक्ति को प्रोत्साहन, उत्तेजना और संरक्षण प्राप्त होता है |

उल्लेखनीय है कि धारा 34 किसी अपराध-विशेष का सृजन नहीं करती है, अपितु, यह साक्ष्य विधि का एक नियम मात्र है । इसमें यह व्यवस्था दी गई है कि यदि दो या दो से अधिक व्यक्ति संयुक्त रूप से आशय सहित कोई अपराध कारित करते हैं, तो उस कार्य का परिणाम ऐसा माना जाएगा मानो कि उनमें से प्रत्येक व्यक्ति ने व्यक्तिगत रूप से वह अपराध किया है ।

यदि अनेक व्यक्ति किसी सामान्य उद्देश्य की पूर्ति के लिए सामान्य आशय सहित कार्य करते हैं, तो उनमें से प्रत्येक को उस कार्य के लिए दोषी माना जाएगा और उसके लिए सभी दायित्वाधीन होंगे ।

महेश तथा अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य (Mahesh and others Vs. State of Madhya Pradesh) के वाद में उच्चतम न्यायालय ने धारा 34 के सन्दर्भ में एक बार पुनः स्पष्ट किया कि इस धारा में आपराधिक विधि के अन्तर्गत आन्वयिक दायित्व (Constructive liabilty) के सिद्धान्त को समाविष्ट किया गया है जिसके अनुसार जहाँ दो या अधिक व्यक्ति कोई अपराधकृत्य संयुक्त रूप से सामान्य आशय सहित करते हैं, तो यह माना जाएगा कि उनमें से प्रत्येक व्यक्ति ने वह कृत्य वैयक्तिक रूप से किया है, भले ही वास्तव में वह कृत्य उनमें से एक या कुछ व्यक्तियों ने ही कारित किया हो और उसमें सभी सक्रिय रूप से शामिल न रहे हों ।

प्रस्तुत वाद में मुख्य अभियुक्त द्वारा सह-अभियुक्त रामदत्त से यह कहा जाने पर कि वह बन्दूक ले आए और मृतक पर गोली चलाए ताकि वह मर जाए, इस तथ्य को साबित करने का पर्याप्त सबूत था कि उन दोनों का सामान्य उद्देश्य यह था कि बन्दूक से गोली दागकर मृतक की हत्या कर दी जाए । अतः रामदत्त (सह-अभियुक्त) भी धारा 300 (धारा 34 के साथ सहपठित) के अधीन हत्या के लिए उतना ही दोषी था जितना कि मुख्य अभियुक्त, और इसीलिए उच्च न्यायालय द्वारा उसकी दोषमुक्ति को निरस्त कर उसे धारा 300/34 के अधीन दण्डादिष्ट किया जाना न्यायोचित था ।

फलत: उच्चतम न्यायालय द्वारा अपील खारिज कर दी गई ।


गिरजाशंकर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (Girjashankar Vs. State of Uttar Pradesh) के वाद में सामान्य आशय सम्बन्धी धारा 34 को अधिनियमित करने का प्रयोजन स्पष्ट किया गया है । इसके अनुसार भारतीय दण्ड संहिता में धारा 34 सामान्य स्पष्टीकरण का अधिनियमन, आपराधिक कृत्य करने में संयुक्त दायित्व के सिद्धान्त पर आधारित है ।

यह धारा केवल साक्ष्य का नियम है अतः यह किसी मौलिक अपराध का सृजन नहीं करती है । इसकी महत्वपूर्ण विशेषता आपराधिक कृत्य में भागीदारी का तत्व है । जब अनेक व्यक्तियों द्वारा कोई आपराधिक कृत्य किया जाता है, तो उस दौरान किसी अन्य अभियुक्त द्वारा कारित अपराध के लिए धारा 34 के अधीन किसी दूसरे अभियुक्त का दायित्व उस स्थिति में उत्पन्न होता है जब ऐसा अपराध कारित करने में शामिल सभी अभियुक्तों ने सामान्य आशय के अग्रसरण में वह कृत्य किया हो ।


उपर्युक्त मामले में अपीलार्थी व अन्य अभियुक्तों ने मृतक तथा साक्षियों को बदमाश समझकर मारा-पीटा था और एक अभियुक्त ने बन्दूक से मृतक व एक साक्षी पर फायर कर दिया था । उच्चतम न्यायालय ने भँवरसिंह तथा अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य (Bhanwar Singh and others Vs. State of Madhya Pradesh) के बाद में पुनः दोहराया कि धारा 34 किसी अपराध-विशेष का सृजन नहीं करती है अपितु इसमें संयुक्त आपराधिक दायित्व से सम्बन्धित सिद्धान्त मात्र प्रतिपादित किया गया है । यह धारा लागू होने के लिए दो शर्तों का विद्यमान होना आवश्यक है । प्रथम यह कि दो या अधिक व्यक्तियों का कोई अपराध कारित करने का सामान्य आशय होना चाहिए तथा दूसरे, उस अपराध को करने या कारित करने की दिशा में सभी अग्रसर होने चाहिए। यह आवश्यक नहीं है कि आशयित अपराध प्रकट रूप से घटित होना चाहिए ।

धारा 34 के अन्तर्गत केवल सामान्य उद्देश्य मात्र प्रमाणित कर देना पर्याप्त नहीं होता है बल्कि यह सिद्ध करना भी आवश्यक होता है कि अपराध-कार्य में सम्मिलित व्यक्तियों में से प्रत्येक का आशय सामान्य (एक ही) था और उस सामान्य आशय की ओर अग्रसर होते हुए या पूर्ति के लिए उन्होंने वह कार्य किया था । अतः सामान्य आशय के अभाव में, सामान्य योजना के परिवर्धन मात्र के आधार पर किसी अपराध कार्य में शामिल प्रत्येक व्यक्ति को धारा 34 के अन्तर्गत दोषी नहीं ठहराया जा सकता है । धारा 34 के अधीन संयुक्त दायित्व तभी उत्पन्न होता है जब अपराध-कार्य में संयुक्त आशय विद्यमान हो । अपराध स्थल पर व्यक्तियों की उपस्थिति मात्र उन्हें अपराध में शामिल होने का दोषी ठहराने के लिए पर्याप्त नहीं है जब तक कि उनका अपराध कार्य में सामान्य आशय से शामिल होना साबित न कर दिया जाए । किसी व्यक्ति को धारा 34 के अन्तर्गत दोषी ठहराए जाने के लिए ।

दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि धारा 34 लागू होने के लिए सामान्य आशय का होना तथा अपराध-कार्य में किसी न किसी रूप में भाग लिया जाना, ये दो तत्व विद्यमान होना आवश्यक है ।

धारा 34 में प्रयुक्त शब्दावली 'सामान्य आशय' से यह स्पष्ट है कि किसी व्यक्ति को इस धारा के अधीन दायित्वाधीन ठहराने के लिए यह सिद्ध किया जाना चाहिए कि उसने अपराध-कार्य पूर्व नियोजित योजना को आगे बढ़ाने के आशय से किया है ।' यहाँ 'पूर्व नियोजित योजना' से आशय यह नहीं है कि उस व्यक्ति ने अन्य लोगों के साथ मिलकर पहले से योजनाबद्ध कार्यक्रम बनाया हो, अपितु अपराध की घटनास्थल पर केवल भाव-भंगिमा मात्र से भी सामान्य आशय उत्पन्न हो सकता है ।

आपराधिक मामले में संयुक्त दायित्व के लिए यह आवश्यक है कि अपराध-कार्य को करने में अभियुक्त का सम्बन्ध हो, केवल उस अपराध की तैयारी की योजना में शामिल होने मात्र से वह दायित्वाधीन नहीं माना जाएगा

धारा 34 द्वारा इस सामान्य सिद्धान्त को सांविधिक मान्यता प्रदान की गई है कि यदि दो या अधिक व्यक्ति आशय सहित कोई कार्य संयुक्त रूप से करते हैं, तो यह उसी प्रकार होगा मानो कि वह कार्य उनमें से प्रत्येक ने व्यक्तिगत रूप से किया है ।


इस सिद्धान्त की पुष्टि रेग बनाम क्रूस (Reggae Vs Crus) के वाद से होती है जिसमें पुलिस का सिपाही अपने साथियों सहित किसी मकान में 'क' नामक व्यक्ति को गिरफ्तार करने हेतु प्रवेश करने पर उस मकान से 'ख' 'ग' 'घ' तथा अन्य व्यक्ति बाहर निकल आए और उन्होंने उस पुलिस दल को धक्का देकर बाहर खदेड़ दिया और इनमें से एक ने पुलिस के सिपाही को घूंसे भी मारे । इस वाद में उक्त मकान से निकले प्रत्येक व्यक्ति को इस कृत्य के लिए दोषी माना गया | भले ही उसने सिपाही को मारने में वास्तव में भाग लिया हो या न लिया हो ।


धारा 34 के मूल सिद्धान्त को भलीभाँति समझने के लिए प्रीवी कौंसिल द्वारा निर्णीत बारेन्द्र कुमार घोष बनाम सम्रा (Barendra Kumar Ghosh Vs Samra) के वाद, जिसे पोस्टमास्टर हत्याकाण्ड (Postmaster Murder) भी कहा गया है, का उल्लेख करना उचित होगा ।

इस वाद में अपीलार्थी के विरुद्ध शंकरीटोला डाकघर के पोस्टमास्टर की हत्या का आरोप था । इस प्रकरण में जिस समय उक्त पोस्ट मास्टर डाकघर के अन्दर के कमरे में रुपये गिन रहा था, पिस्तौल से लैस कुछ व्यक्ति पीछे के आंगन से घुसकर उस कमरे में आए तथा उन्होंने पोस्ट मास्टर से पैसे माँगे तथा इसके तुरन्त बाद उनमें से किसी ने उस पर पिस्तौल दाग दी जिसके परिणामस्वरूप उसे दो जगह चोटें आई और वह तत्काल मर गया ।

यह घटना होते ही हमलावर बिना धन लिये अलग-अलग दिशा में भागे तथा डाकघर के अन्य कर्मचारियों द्वारा पीछा किया जाने पर उनमें से बारेन्द्र कुमार घोष नामक एक अपराधी पकड़ा गया जिसके हाथ में पिस्तौल भी थी । उसके विरुद्ध दण्ड संहिता की धारा 302/34 के अधीन आपराधिक विचारण में उसका तर्क यह था कि उसे जबरदस्ती इस लूट में शामिल किया गया था तथा पोस्ट मास्टर की हत्या कारित करने का उसका वास्तव में कोई इरादा नहीं था । कलकत्ता उच्च न्यायालय तथा प्रीवी कौसिल, दोनों ने अभियुक्त को धारा 302 के अधीन हत्या का दोषी ठहराया तथा यह अभिनिर्धारित किया कि पोस्ट मास्टर की हत्या तीन व्यक्तियों के संयुक्त आशय से हुई थी, जिनमें से अभियुक्त भी एक था । अतः वह हत्या का दोषी था चाहे उसने स्वयं पिस्तौल चलाई हो या उसके अन्य दो साथियों में से किसी ने चलाई हो ।

लार्ड समर (Lord Summer) ने इस वाद में निर्णय देते हुए विनिश्चित किया कि इस वाद में यदि अभियुक्त केवल डाकघर के दरवाजे के बाहर खड़ा रहकर प्रतीक्षा करते हुए भी पाया जाता, तो भी उसका सामान्य आशय होने के कारण उसे दोषी माना जाता ।


सत्यवीर सिंह राठी बनाम राज्य(Satyaveer Singh Rathi Vs. State) (CBI के माध्यम से) कि जहाँ दो या अधिक अभियुक्तों ने सामान्य आशय से किसी व्यक्ति या व्यक्तियों की हत्या कारित हों, वहाँ धारा 302/307 के साथ धारा 120-B की बजाय धारा 34 को प्रयुक्त किया जाना श्रेयस्कर होता है क्योंकि धारा 120-B एक विशिष्ट अपराध (आपराधिक षड्यन्त्र) का सृजन करती है इसीलिए इसे साबित किये जाने हेतु निश्चित सकारात्मक साक्ष्य की अनिवार्यता रहती है जबकि धारा 34 (सामान्य आशय) के अधीन किसी अपराध-विशेष का सृजन नहीं होता और यह एक साक्ष्य के नियम मात्र की भाँति होती है जिसके आधार सबूत के बारे में अनुमान (inference) लगाया जाता है । आशय यह कि जहाँ धारा 302/307 के साथ धारा 120-B का अपराध भी बनता है वहाँ प्राय: 120-B की बजाय धारा 34 का प्रयोग ही सुगमता की दृष्टि से उचित होता है ताकि निश्चित सबूत के अभाव में धारा 120-B का अपराध विफल न होने पाए ।

इस वाद में पुलिस द्वारा सड़क पर जा रही कार पर गोलियां चलाए जाने से उसमें सवार दो निर्दोष व्यक्तियों की मृत्यु हो गई थी । पुलिस का कहना था उन्होंने कार में इनामी घोर अपराधी की गलतफहमी में उस पर गोलियां चलाई थी और यह कृत्य उनके कर्तव्य के निवर्हन के दौरान हुआ था अतः वह दोषी नहीं है । परन्तु न्यायालय ने पुलिस की दलील को खारिज करके उसे धारा 302/307/34 के अन्तर्गत सिद्धदोष किया ।

शिवराम सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (Shivram Singh Vs. State of Uttar Pradesh) के प्रकरण में उच्चतम न्यायालय ने विनिश्चित किया कि सामान्य आशय घटना के दौरान एकाएक उत्पन्न हो सकता है, परन्तु जब तक अभियुक्त के विरुद्ध सामान्य आशय का कोई ठोस सबूत न हो, उसे धारा 34 के अधीन दोषी नहीं माना जा सकता है ।

इस वाद में अभियुक्त पिता तथा पुत्र किसी 'क' नामक व्यक्ति की हत्या करने के उद्देश्य से 'ब' के मकान में घुसे । 'ब' द्वारा 'क' को घर से बाहर भेजने से इन्कार किये जाने पर पिता ने 'ब' पर पिस्तौल चला दी जिससे 'ब' की मृत्यु हो गई । उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि इस मामले में पुत्र को हत्या का दोषी नहीं माना जा सकता क्योंकि इस बात का कोई ठोस सबूत नहीं था । कि उसका 'ब' की हत्या करने का कोई आशय था। इस वाद में पिता तथा पुत्र का 'क' जो कि 'ब' के मकान में था, की हत्या करने का सामान्य आशय था । पुत्र ने भी 'क' की ओर पिस्तौल चलाई थी जिसके लिए उसे धारा 307 के अधीन दोषी पाया गया परन्तु उसे धारा 302/34 के अपराध के लिए दोषमुक्त कर दिया गया क्योंकि 'ब' की मृत्यु पिता की गोली से कारित हुई थी । अतः केवल पिता ही धारा 302 के अधीन हत्या के लिए दोषी था ।



धारा 34 के अन्तर्गत सामान्य आशय के आवश्यक तत्व


भारतीय दण्ड संहिता की धारा 34 के अनुसार संयुक्त दायित्व के लिए सामान्य आशय होना आवश्यक है । सामान्य आशय के लिए निम्नलिखित तत्वों का होना आवश्यक है -

1. कोई आपराधिक कार्य घटित हुआ हो (Click Here)

2. वह कार्य एक से अधिक व्यक्तियों द्वारा किया गया हो (Click Here)

3. उस कार्य में लगे सभी व्यक्तियों का सामान्य आशय हो (Click Here)

4. वह कार्य उन व्यक्तियों के सामान्य आशय को अग्रसर किये जाने हेतु किया गया हो । (Click Here)

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