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भगत सिंह का मुकदमा | Bhagat Singh's Case

भगत सिंह का मुकदमा | Bhagat Singh's Case      (1929) “ भगत सिंह एक प्रतीक बन गये थे । उनका कार्य (सांडर्स की हत्या) भुला दिया गया ,...

भगत सिंह का मुकदमा | Bhagat Singh's Case  

 (1929)


भगत सिंह एक प्रतीक बन गये थे उनका कार्य (सांडर्स की हत्या) भुला दिया गया, लेकिन प्रतीक याद रहा और कुछ ही महीनों के अंदर, पंजाब के हर शहर और गांव में तथा कुछ हद तक भारत के बाकी हिस्सों में उनका नाम गूंजने लगा उन पर अनेकों गीत रचे गये और उन्हें जो लोकप्रियता मिली, वह अद्वितीय थी ।"

-जवाहरलाल नेहरू की 'आत्मकथा' से उद्धृत



भारत की स्वाधीनता के इतिहास में दो आंदोलनों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई तिलक और महात्मा गांधी द्वारा चलाया गया शांतिपूर्ण आंदोलन और सावरकर, अरविंद घोष और भगत सिंह तथा उनके सहयोगियों अनुयायियों द्वारा चलाया गया क्रांतिकारी आंदोलन
 
भगत सिंह की क्रांतिकारी गतिविधियों और उनके द्वारा केंद्रीय असेंबली में फेंके गए बम ने भी ब्रिटिश शासन के खिलाफ उतनी ही प्रभावशाली भावनाएं जगायीं, जितनी कि शांतिपूर्ण सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा आंदोलन ने । सावरकर, तिलक और महात्मा गांधी के मुकदमों की तरह भगत सिंह और उनके साथियों के मुकदमे भी भारत के मुक्ति-संग्राम के इतिहास में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं । ब्रिटिश राज अपना पूरा दमखम लगाकर भी, न तो इन स्वतंत्रता सेनानियों के हौंसले और हिम्मत खत्म कर पाया और न ही मौत के मुंह में जाते वक्त उनके चेहरों की मुस्कराहटों को मिटा सका था । भगत सिंह के इन मुकदमों के दौरान सभी स्थापित नियम-प्रक्रियाओं के चिथड़े उड़ा दिये गये थे और उन्हें दोषी ठहराते वक्त, सजाएं सुनाते वक्त एक बिलकुल नया मनमाना ढंग अपनाया गया था ।
 
भगत सिंह और उनके साथियों की असाधारण साहसिक, क्रांतिकारी गतिविधियों का पूरा विवरण देना यहां संभव नहीं है, अतः संक्षेप में ही उन घटनाओं की चर्चा की जा सकती है, जिन्होंने भगत सिंह और उनके साथियों को सन् 1928 में लाहौर में पुलिस के जे.पी. सांडर्स की हत्या करने और 1929 में नयी दिल्ली में केंद्रीय असेंबली में बम फेंकने की प्रेरणा दी ।
 
वह देश में असंतोष का दौर था, जब जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा अंग्रेजों के राजनीतिक दमन और आर्थिक शोषण से मुक्ति की मांग कर रहा था । भारतीयों की भावनाओं को शांत करने के लिए देश के राजनीतिक हालात का जायजा लेने के दिखावटी उद्देश्य से, सर साइमन अपना दल लेकर सन् 1928 में भारत आये । चूंकि इस कमीशन में भारत की ओर से कोई प्रतिनिधि नहीं था, इसलिए गांधीजी ने इसके बहिष्कार का नारा दिया ।
 
लाला लाजपत राय के नेतृत्व में पंजाब ने इसमें पहल की और 30 अक्तूबर 1928 को, लाहौर की सड़कों पर 'साइमन, वापिस जाओ', 'भारत हमारा है', इत्यादि नारों के बैनर लिए एक शांतिपूर्ण जुलूस निकाला गया । इस जुलूस का नेतृत्व लाला लाजपत राय और भगत सिंह कर रहे थे । एकाएक बिना किसी कारण या चेतावनी के, पुलिस के अधीक्षक स्कॉट और सहायक अधीक्षक जे.पी. सांडर्स के आदेशों पर जनता पर लाठियां बरसाई जाने लगीं । लाला लाजपत राय को इसमें गंभीर चोटें आयीं और इस घटना के 15 दिनों के भीतर 17 नवंबर 1928 को इन चोटों के कारण उनकी मृत्यु हो गयी । पूरा देश क्षुब्ध और क्रुध हो उठा । भगत सिंह ने 'खून का बदला खून' से इस राष्ट्रीय अपमान का बदला लेने का दायित्व लिया ।
 
17 दिसंबर 1928 को भगत सिंह, अपने दो करीबी साथियों, राजगुरु और आजाद, के साथ पुलिस अधीक्षक स्कॉट के दफ्तर पहुंचे । पंजाब के केंद्रीय सचिवालय में स्थित इस दफ्तर में भगत सिंह और उनके साथियों ने अपना पूर्व निर्धारित स्थान संभाला । कुछ समय बाद, एक अंग्रेज दफ्तर से बाहर निकला । भगत सिंह के एक साथी जयगोपाल ने उसे स्कॉट समझ लिया । वास्तव में वह पुलिस सहायक अधीक्षक जे.पी. सांडर्स था । चार बज कर बीस मिनट पर जैसे ही सांडर्स अपनी मोटरसाइकिल चलाकर गेट के बाहर सड़क पर पहुंचा, जयगोपाल का संकेत पाकर राजगुरु ने गोली चलाई, जो सांडर्स की गर्दन में लगी । वह गिर पड़ा । भगत सिंह भागकर उसके पास पहुंचे और काम पूरा करने के लिए उसके सिर पर चार-पांच गोलियां दाग दीं । उसके बाद तीनों भाग लिये । देश ने सांडर्स की हत्या पर खुशियां मनाई, क्योंकि यह हिंसा या आतंक का कार्य नहीं था, बल्कि लाला लाजपत राय की सम्मान रक्षा और उनके जरिए पूरे देश की सम्मान रक्षा का प्रश्न था ।
 
मार्च 1929 में ब्रिटिश सरकार ने ट्रेड यूनियनों के नेताओं को बेवजह पकड़ कर स्वाधीनता सेनानियों को एक और आघात पहुंचाया । गिरफ्तार किये गये नेताओं में एस.ए. डांगे, मुजफ्फर अहमद, एस.वी. घाटे और 29 अन्य प्रमुख श्रमिक नेता थे ।
 
जन-सुरक्षा बिल (पब्लिक सेफ्टी बिल) और व्यापार-विवाद बिल (ट्रेड डिसप्यूट बिल) पर विचार करने के लिए 8 अप्रैल 1929 को केंद्रीय असेंबली की बैठक निर्धारित की गयी थी । दर्शकों और अखबार प्रतिनिधियों की भारी भीड़ केंद्रीय कक्ष में उपस्थित थी । खाकी निकर-कमीज पहने भगत सिंह और बी.के. दत्त अंदर आकर दर्शकों की दीर्घा में बैठ गये । व्यापार-विवाद बिल पर मतगणना खत्म होने के बाद और अध्यक्ष द्वारा बिल पास होने का निर्णय देने से पहले ही एक जबर्दस्त धमाके के साथ वहां धुआं भर गया । केंद्रीय कक्ष में कोई बम या विस्फोटक फटा था और वहां बिलकुल अंधेरा छा गया था । महिला-दीर्घा से चीखें सुनाई दीं, नीचे शोर-शराबा मच गया और इससे पहले कि लोग इस सदमे से उबर पाते, एक दूसरा विस्फोट हुआ । धुएं-धमाके, चीख-चिल्लाहट, शोर-शराबे से चारों तरफ अव्यवस्था फैल गयी । सदस्य बाहर की ओर लपके, दर्शक जान बचाने को छिप गये और महिलाएं जाने बचाने को भागीं । तभी दो बार पिस्तील से गोली चली । सदस्य और दर्शक स्तब्ध रह गये ।
 
भगत सिंह और बी.के. दत्त के लिए असेंबली के केंद्रीय कक्ष में बम फेंकने के बाद पुलिस की नजरों में धूल झोंककर भाग जाना मुश्किल काम न था, लेकिन न भागने का फैसला पहले ही लिया जा चुका था । दोनों निडर सिपाही गिरफ्तार होने के उद्देश्य से अपनी जगह पर अडिग खड़े रहे । केंद्रीय कक्ष में पर्चे फेंकने और क्रांतिकारी नारे लगाने के बाद दोनों अभियुक्त पुलिस के हाथों गिरफ्तार हुए । उनका यह कृत्य कालांतर में उनके लिए 'आत्मघातक' सिद्ध हुआ । लेकिन उस समय उसका एक गहरा गूढ़ अर्थ था । देश और संसार के लिए वह एक संदेश था - ब्रिटिश राज द्वारा किए जा रहे शोषण के प्रति गहरा असंतोष और विरोध दिखाने का माध्यम था । दोनों अभियुक्तों को एकांत कारावास और कड़ी सुरक्षा में रखा गया ।
 
ब्रिटिश सरकार ने कोई जोखिम न उठाते हुए जेल में ही दोनों अभियुक्तों को सम्मन जारी किये । सुनवाई के दिन कड़े सुरक्षा कदम उठाए गये । 'द हिन्दुस्तान टाइम्स' समाचार पत्र में छपा था : "राजपुर रोड पर मजिस्ट्रेट के निवास स्थान से लेकर जेल तक और जेल तक पहुंचने वाली दूसरी सभी सड़कों पर लाठियां लिए पुलिसवालों की कतारें थी । सी.आई.डी. के आदमी सादे कपड़ों में सड़कों पर साइकिल चलाते और प्रमुख चौराहों पर नजर रखते देखे जा सकते थे । जेल के बाहरी अहाते में कड़ी सुरक्षा थी । ट्रैफिक इंस्पैक्टर श्री जॉनसन तीन सार्जेंटों के साथ जेल के मुख्य द्वार पर मौजूद थे, जबकि पुलिस सहायक अधीक्षक श्री अली, पुलिस उपाधीक्षक श्री आर.बी. मलिक और श्री देवी दयाल तथा जेलर पंडित माधवराम ने अदालत के अंदर की कमान संभाल रखी थी । अदालत में घुसने वाले 'प्रत्येक' व्यक्ति की अच्छी तरह तलाशी ली गयी । अंदर आने वाले सभी व्यक्तियों की तलाशी की जिम्मेदारी दिल्ली गेट पुलिस स्टेशन के कार्यप्रभारी सब इंस्पेक्टर शेख अब्दुल रहमान पर थी । समाचार पत्रों के प्रतिनिधियों तक की पूरी तरह तलाशी ली गयी थी।"
 
दिल्ली के एक प्रमुख युवा वकील श्री आसफ अली बचाव पक्ष की ओर से अदालत में उपस्थित थे, जबकि साम्राज्य का प्रतिनिधित्व सरकारी वकील आर.बी. सूरज नारायण ने किया । मजिस्ट्रेट एक ब्रिटिश न्यायाधीश श्री एफ.बी. पूल थे । वकीलों और समाचारपत्र प्रतिनिधियों के अलावा श्रीमती आसफ अली, श्री किशन सिंह (भगत सिंह के पिता), भगत सिंह की मां और अजीत सिंह की पत्नी तथा दो प्रशिक्षार्थी मजिस्ट्रेट वहां उपस्थित थे ।
 
दस बजकर आठ मिनट पर भगत सिंह और बी.के. दत्त को अदालत में लाया गया । अदालत में घुसते ही भगत सिंह ने बुलंद आवाज 'इंकलाब जिंदाबाद' और बी.के. दत्त ने 'साम्राज्यवाद मुर्दाबाद' के नारे लगाये । इन नारों से अदालत में हलचल मच गयी । अदालत ने इन नारों को दर्ज किया और पुलिस को दोनों अभियुक्तों के दोनों हाथों में हथकड़ी लगाने का आदेश दिया ।
 
एक समाचारपत्र 'रिपोर्टर' ने लिखा : "भगत सिंह और बी.के. दत्त, दोनों ही पूरा समय खुश थे और हंस रहे थे । अदालत की कार्यवाही के विपरीत उन्हें हथकड़ी लगाकर कठघरे के अंदर एक बेंच पर बिठाया गया था । उनके पीछे जेल अधिकारी और कुछ सी.आई.डी. के व्यक्ति बैठे थे ।"
 
फिर अभियोग पक्ष द्वारा साक्ष्य प्रस्तुत किए गये और अदालत द्वारा उन्हें दर्ज किया गया । उसी दिन 11 अभियोक्ता गवाहों (सभी सरकारी) की गवाहियां हुईं । स्वतंत्र रूप से एक भी गवाह वहां उपस्थित नहीं था । अदालत के दोपहर के भोजन के लिए उठने पर भगत सिंह के परिवार को पुलिस अफसरों की मौजूदगी में उनसे मिलने की अनुमति दी गयी । उस मुलाकात में भगत सिंह बार-बार अपने पिता से यही कहते रहे कि सरकार उन्हें फांसी चढ़ाने पर तुली है, इसलिए उनके इतना चिंतित होने से कोई लाभ नहीं है । अदालत के भोजन के लिए उठने से पहले भगत सिंह ने अदालत से पढ़ने के लिए अखबार की मांग की थी, क्योंकि सभी राजनीतिक बंदियों को अखबार देने की अनुमति थी और मेरठ षड्यंत्र कांड में भी इसकी स्वीकृति दी गयी थी । लेकिन अदालत ने इस मांग को यह कहकर अस्वीकार कर दिया कि वह किसी पूर्वोदाहरण को मानने के लिए बाध्य नहीं है ।
 
अगले दिन, 8 मई 1929 को कड़ी सुरक्षा व्यवस्था में अदालत की बैठक फिर हुई । भगत सिंह और दत्त को दोबारा अदालत में लाया गया और उन्होंने फिर 'इंकलाब जिंदाबाद' और 'ब्रिटिश साम्राज्यवाद मुर्दाबाद' के नारे लगाये । अभियोग पक्ष की गवाहियों के बाद भगत सिंह और बी.के. दत्त से अपने बयान देने को कहा गया, जिन्हें देने के लिए दोनों ने मना कर दिया । बहरहाल, भगत सिंह खड़े हुए और उन्होंने अदालत के सवालों के ये जवाब दिए :
 
"नाम: भगत सिंह     पेशा:कुछ नहीं     निवास स्थान :लाहौर     मुहल्ला:हम एक जगह से दूसरी जगह घूमते रहते हैं ।
"प्रश्न: क्या 8 अप्रैल 1929 को तुम असेंबली में उपस्थित थे ?
"उत्तर: जहां तक इस मुकदमे का सवाल है, इस वक्त में कोई बयान देने की जरूरत नहीं समझता । अगर मैं ऐसी जरूरत महसूस करूंगा तो बाद में बयान दूंगा ।
"प्रश्न: कल अदालत में आने पर और आज फिर तुमने 'इंकलाब जिंदाबाद' के नारे लगाये । तुम्हारा इससे क्या अभिप्राय था ? "
आसफ अली ने इस प्रश्न पर आपत्ति की और अदालत ने इस आपत्ति को सही करार दिया । इसी तरह बी.के. दत्त ने भी अदालत द्वारा पूछे गये सवालों का जवाब भर दिया और कोई बयान देने से इंकार किया । अदालत ने फिर सफाई वकील को सुना, जिन्होंने अपने तर्क सामने रखते हुए चालीस मिनट लंबा, उत्कृष्ट भाषण दिया ।
 
बचाव पक्ष की दलीलों को सुनने के बाद अदालत ने भारतीय दंड संहिता की धारा 307 के अंतर्गत हत्या के तथाकथित प्रयास के लिए और विस्फोटक पदार्थ अधिनियम (एक्स्प्लोसिव्ज सब्स्टेंसिज एक्ट) की धारा तीन के अंतर्गत, असेंबली में बम फेंकने और अनेक व्यक्तियों को मारने तथा चोट पहुंचाने के लिए, दोनों अभियुक्तों पर अभियोग लगाये ।
 
भगत सिंह और बी.के. दत्त से फिर पूछा गया कि क्या वे कोई बयान देना चाहते हैं तो उन्होंने पुनः जवाब दिया - "यह बाद में तय किया जायेगा ।" तदुपरांत दोनों को मुकदमा चलाने के लिए सेशन अदालत के सुपुर्द कर दिया गया ।
 
सेशन अदालत में मुकदमा जून 1929 के पहले सप्ताह में शुरू हुआ । साम्राज्य के लिए मुकदमे का संचालन कर रहे सरकारी अभियोक्ता ने अभियोग पक्ष की तरफ से कुछ और गवाह पेश किये । एक बार अभियोग पक्ष के साक्ष्य पूरे हो जाने के बाद भगत सिंह को लगा कि अपने उद्देश्य के बारे में विस्तृत बयान देने का समय आ गया है । अपना लिखित बयान तैयार करने में उन्होंने काफी मेहनत की थी । 6 जून को आसफ अली ने अदालत में भगत सिंह और बी.के. दत्त की तरफ से यह बयान पढ़कर सुनाया । यह ऐतिहासिक वक्तव्य क्रांतिकारी और मार्क्सवादी सिद्धांतों पर आधारित एक उत्कृष्ट दस्तावेज है और भारत के क्रांतिकारी विचारों के इतिहास में एक क्रांतिकारी अध्याय जोड़ता है । यह वक्तव्य इतना मर्मस्पर्शी था कि चार निर्धारकों में से तीन के लिए अपनी गीली आंखें छुपाना मुश्किल हो गया था ।
 
वक्तव्य में कहा गया था: "हमारे ऊपर कुछ गंभीर आरोप लगाए गये हैं । इसलिए यह आवश्यक है कि हम भी अपनी सफाई में कुछ शब्द कहें । इस सिलसिले में निम्नलिखित प्रश्न उठते हैं : "क्या वास्तव में असेंबली में बम फेंके गये थे ? यदि हां, तो क्यों ? नीचे की अदालत में हमारे ऊपर जो आरोप लगाए गये हैं, वे सही हैं या गलत ? "पहले प्रश्न के पहले आधे भाग के लिए हमारा उत्तर स्वीकारात्मक है, लेकिन तथाकथित 'चश्मदीद गवाहों' ने इस मामले में जो गवाही दी है, वह सरासर झूठ है । चूंकि हम बम फेंकने से इंकार नहीं कर रहे हैं, इसलिए यहां इन गवाहों के बयानों की सच्चाई की परख भी हो जानी चाहिए । उदाहरण के लिए हमें यहां बता देना चाहिए कि सार्जेंट टेरी का यह कहना कि उन्होंने हममें से एक के पास से पिस्तौल बरामद की, एक सफेद झूठ है, क्योंकि जब हमने अपने आपको पुलिस के हाथों सौंपा, तो हममें से किसी के पास पिस्तौल नहीं थी । जिन गवाहों ने कहा कि उन्होंने हमें बम फेंकते देखा, वे झूठ बोलते हैं । न्याय तथा निष्कपट व्यवहार को सर्वोपरि मानने वाले लोगों को इन झूठी बातों से सबक लेना चाहिए । इंग्लैंड को उसकी स्वप्ननिद्रा से जगाने के लिए बम फेंकना जरूरी था । असेंबली के बीच बम फेंककर हमने उन लोगों की तरफ से विरोध प्रकट किया, जिनके पास अपनी हार्दिक वेदना को व्यक्त करने का और कोई रास्ता नहीं बचा है । हमारा एकमात्र उद्देश्य बहरों को सुनाना और सरकार को समय रहते चेतावनी देना था । हमारी ही तरह और लोगों ने भी यह महसूस किया है कि प्रशांत सागर रूपी भारतीय मानवता की ऊपरी शांति किसी भी समय फूट पड़ने वाले एक भयंकर तूफान की परिचायक है । हमने तो उन लोगों के लिए सिर्फ 'खतरे की घंटी' बजाई है, जो इस खतरे की परवाह किये बगैर तेज रफ्तार से भागे जा रहे हैं । हम लोगों को सिर्फ यह बता देना चाहते हैं कि 'काल्पनिक अहिंसा' का युग अब समाप्त हो चुका है और आज की उगती नयी पीढ़ी को उसकी व्यर्थता में कोई संदेह नहीं रह गया है ।"
 
अहिंसा की नीति से असहमति दिखाते हुए उसकी निरर्थकता और शक्ति प्रयोग की न्यायसंगतता बताते हुए उन्होंने आगे कहा : "जब किसी वैध आदर्श के लिए शक्ति प्रयोग किया जाता है, तो उसका नैतिक औचित्य होता है । किसी भी हालत में शक्ति प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए, यह विचार काल्पनिक और अव्यावहारिक है । देश में उठने वाला यह नया आंदोलन, जिसके आने की चेतावनी हम दे चुके हैं, गुरु गोबिंद सिंह, शिवाजी, कमाल पाशा, रिज़ा खां, वाशिंग्टन और गैरीबाल्डी, लाफायेट और लेनिन के आदर्शों से ही अनुप्रेरित है । इस घटना के सिलसिले में मामूली चोटें खाने वाले व्यक्तियों या असेंबली के किसी अन्य व्यक्ति के प्रति हमारे दिलों में कोई वैयक्तिक द्वेष की भावना नहीं है । इसके विपरीत हम एक बार फिर स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि हम मानव जीवन को अकथनीय पवित्रता देते हैं और किसी अन्य व्यक्ति को चोट पहुंचाने की बजाय हम मानवता की सेवा में हंसते-हंसते अपने प्राण विसर्जित कर देंगे ।"
 
क्रांति की अवधारणा को व्यक्त करते हुए, बयान में कहा गया था: "हमारे समय की बड़ी-बड़ी सामाजिक समस्याओं को सुलझाने का यह एक मात्र प्रभावशाली तरीका है । किसान और मजदूरों को, जो जनता का एक बड़ा हिस्सा हैं, आर्थिक और राजनीतिक स्वतंत्रता दिलाने का यह एक कारगर तरीका है ।" बयान का अंत 'इंकलाब जिंदाबाद' के नारे से किया गया था ।
 
मुकदमे की सुनवाई 10 जून 1929 तक चली और 12 को फैसला सुनाया गया । फैसला सुनाते हुए सेशन न्यायाधीश ने कहा : अभियुक्तों ने असेंबली में बम फेंकना स्वीकार किया है । उन्होंने इस बात से इंकार किया है कि उनमें से किसी ने पिस्तौल चलायी या उनमें से किसी से कोई पिस्तौल छीनी गयी । उन्होंने आरोप लगाया कि हवा में किसी दूसरे व्यक्ति ने गोली चलायी थी, जिसका नाम उन्होंने नहीं बताया । उन्होंने आरोप लगाया है कि पिस्तौल छीनने से संबंधित अभियोग पक्ष की गवाही झूठी है और बम फेंकने से संबंधित कुछ गवाहियां भी झूठी हैं । उन्होंने स्वीकार किया है कि वे मानव जीवन को पवित्र मानते हैं और उन्होंने यह भी कहा कि ये बम उन्होंने अपना विरोध दिखाने और चेतावनी देने के उद्देश्य से फेंके थे । उनका किसी घायल हुए व्यक्ति के प्रति कोई द्वेषभाव नहीं था । उन्होंने बमों द्वारा हुए नुकसान को मामूली बताया है और कहा है कि कोई गंभीर नुकसान पहुंचाना उनका इरादा नहीं था । मैं अपने सम्मुख प्रस्तुत प्रत्यक्ष और मौखिक प्रमाणों को इस बात के अकाट्य प्रमाण के रूप में स्वीकार करता हूं कि भगत सिंह और बी.के. दत्त दोनों ने असेंबली में एक-एक बम फेंका, कि भगत सिंह ने पिस्तौल चलाई, कि दत्त ने असेंबली में पर्चे फेंके लगाये गये अभियोगों के संबंध में जो तथ्य जरूरी हैं, वे ये कि दोनों अभियुक्तों ने एक-एक बम फेंका, और मैं इसे प्रमाणित किया गया मानता हूं । मैं यह भी प्रमाणित किया गया मानता हूं कि भगत सिंह ने मारने या शारीरिक चोट पहुंचाने के इरादे से पहला ऐसा बम फेंका, जिससे वह जानते थे कि मृत्यु हो सकती है । ऐसा करने से सर जार्ज सैनशस्टर, श्री आर.पी. राव और श्री शंकर राव को चोटें आयीं । तथ्य भारतीय दंड संहिता की धारा 308 के अंतर्गत दंडनीय अपराध स्थापित करते हैं, जिसके लिए आजीवन निर्वासन या उससे कम सजा दी जा सकती है । इन क्रियाकलापों में ऐसा विस्फोट करना शामिल है, जो गैरकानूनी है और दुर्भाग्य से किसी की जान ले सकता था, अतः वह 'विस्फोटक पदार्थ अधिनियम, 1908' की धारा 3 के अंतर्गत दंडनीय अपराध सिद्ध करता है ।
 
“ मैं यह प्रमाणित किया गया मानता हूं कि दत्त ने ऐसे ही इरादे से दूसरा बम फेंका और इससे श्री एस. एन. राय और रायबहादुर ए.पी. दूबे को चोटें आयीं । अतः उन्होंने भारतीय दंड संहिता की धारा 307 के अंतर्गत आजीवन कारावास तक के लिए दंडनीय और विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 3 के अंतर्गत दंडनीय अपराध किये । मैं दोनों अभियुक्तों को लगाये गये दोनों अभियोगों के लिए वास्तविक अपराधी मानता हूं और दंड देता हूं ।"
 
न्यायाधीश ने भगत सिंह और बी.के. दत्त को निम्नलिखित दंड सुनाया  :
 
"दोनों अभियुक्तों के क्रियाकलाप कानून की दो धाराओं के अंतर्गत दंडनीय अपराध हैं । भारतीय दंड संहिता की धारा 71 के अंतर्गत दोनों अपराध एक दूसरे में मिश्रित हैं और उनके लिए निर्धारित दंड उनमें से किसी एक के लिए दिए जाने वाले दंड से जयादा नहीं होना चाहिए । दंड की प्रकृति प्रतिशोधात्मक, निवारक या निरोधक हो सकती है । इस मामले में दोनों अभियुक्त इस बात से पूर्णतः लापरवाह लगते हैं कि उनके क्रियाकलाप किसी एक की नहीं, बल्कि कईयों की जान ले सकते थे - ऐसे व्यक्तियों की, जिन्होंने किसी भी मायने में ऐसा करने के लिए उन्हें उकसाया न था और जो उनके अस्तित्व तक से परिचित नहीं थे । यह एक ऐसा जघन्य अपराध है, जो प्रतिशोधात्मक दृष्टि से कड़ी से कड़ी सजा के योग्य है ।
 
अभियुक्तों ने कहा है कि वे मानव जीवन को 'पवित्र' मानते हैं । उनका यह दावा उनके क्रियाकलापों से खारिज हो जाता है । उनका नजरिया शुरू से यही रहा है कि उन्होंने जो कुछ भी किया, वह न्यायोचित और तर्कसंगत है । उनका यह दृष्टिकोण इस बात का प्रमाण है कि उन्होंने यह अपराध क्षणिक आवेग में नहीं, बल्कि सुविचारित योजना बनाकर किया । ऐसा दृष्टिकोण रखते हुए, यह संभव है कि जो उन्होंने एक बार किया, वह दोबारा करने की भी कोशिश करें । अतः निवारक दृष्टिकोण से उनके अपराध कड़ी से कड़ी सजा की मांग करते हैं ।
 
अभियुक्तों के ये क्रियाकलाप प्रचार का अवसर देते हैं । एक अपराधी मनोवृत्ति वाले व्यक्ति को यह अनुकरणीय लग सकता है । अतः निरोधक दृष्टिकोण से ये अपराध कड़ी सजा की मांग करते हैं । अभियुक्त युवक हैं, लेकिन उन्होंने सोच-समझकर ये काम किये और इन पेचीदा कामों के लिए काफी तैयारी की । इन परिस्थितियों में इन युवकों को अपर्याप्त दंड प्रदान नहीं किया जाना चाहिए । मैं भगत सिंह और बी.के. दत्त को आजीवन निर्वासन का दंड देता हूं । "
 
कोई अपील अभीष्ट नहीं थी, क्योंकि उसका कोई फायदा नहीं था, लेकिन अपने उद्देश्यों को प्रचारित करने और जनता को जागृत करने के लिए उच्च न्यायालयों को माध्यम के रूप में इस्तेमाल करने के नजरिए से भगत सिंह और बी.के. दत्त ने उसमें अपील की । सुनवाई न्यायाधीश फोर्ड और न्यायाधीश एडीसन ने की । आसफ अली ने उस पर ढाई दिन तक बहस की । तीसरे दिन के बाकी बचे समय में सरकारी वकील ने उनकी दलीलों के जवाब दिये । लेकिन इस दौरान, आसफ अली के वक्तव्य के अनुसार भगत सिंह ने भी अपनी तरफ से दलीलें पेश की । जैसा कि पहले ही मालूम था, उच्च न्यायालय द्वारा 18 जनवरी 1930 को यह अपील नामंजूर कर दी गयी और सेशन अदालत के निर्णय से सहमति व्यक्त की गयी ।

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