मेरठ षड्यंत्र मामला । मेरठ षड्यंत्र केस । भारतीय कम्युनिस्टों का मुकदमा | Meerut Conspiracy Case मेरठ षड्यंत्र कांड मुकदमा ब्रिटिश शासन क...
मेरठ षड्यंत्र मामला । मेरठ षड्यंत्र केस । भारतीय कम्युनिस्टों का मुकदमा | Meerut Conspiracy Case
मेरठ
षड्यंत्र कांड मुकदमा ब्रिटिश शासन के दौरान चले सर्वाधिक कुख्यात मुकदमों में
से एक है
। 32 कम्युनिस्ट इस षड्यंत्र में शामिल थे
। एम.एन. राय तथा ब्रिटिश नागरिक
हचिन्सन को छोड़कर बाकी सभी को मार्च 1929 में गिरफ्तार कर लिया गया था और
मुकदमे की सुनवाई के दौरान जेल की हिरासत में
रखा गया था ।
आरोप
लगाया गया था कि कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के कार्यक्रमों का समर्थन करने
वाली भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों ने
सर्वहारा वर्गों, किसानों और मजदूरों, के सशस्त्र
विद्रोह द्वारा सत्ता को उखाड़ फेंकने और भारत
को आजाद कराने के घोषित उद्देश्य से एक क्रांतिकारी समिति का गठन किया था
। यह भविष्य का कोई दूरस्थ लक्ष्य नहीं था, बल्कि इस काम को अविलंब किया जाना था । अतः
अभियुक्तों ने महामहिम सम्राट को ब्रिटिश भारत की प्रभुसत्ता से वंचित करने का
षड्यंत्र किया था । उन पर भारतीय दंड संहिता की धारा 121-ए के अंतर्गत अभियोग लगाया गया था ।
यह
मुकदमा अपनी अभूतपूर्व अवधि के चलते कुख्यात हो गया था । उसका आरंभ 15 मार्च 1929 को
हुआ था और अंत लगभग साढ़े चार साल बाद ।
यह
मुकदमा अत्यंत विस्तृत पैमाने पर चलाया गया था । साक्ष्यों में फोलियो साइज के 25 मुद्रित खंड थे । कुल मिलाकर अभियोग पक्ष
द्वारा 3,500 वस्तुएं प्रदर्शित की गयी थीं और बचाव पक्ष
द्वारा 1500 के लगभग । इनके अतिरिक्त 20 गवाहों के बयान लिए गये थे । यहां तक कि
निर्णय भी फोलियो साइज के 676 पृष्ठों के दो खंडों में प्रकाशित किया गया था
।
दोषी
ठहराए गये कुछ प्रतिष्ठित व्यक्ति भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे । उनमें एस.ए.
डांगे भी थे, जिनकी मई 1991
में मृत्यु हुई ।
मेरठ
षड्यंत्र कांड मुकदमा (1927-1933)
'भारतीय कम्युनिस्टों का मुकदमा' के नाम से प्रसिद्ध मेरठ षड्यंत्र कांड 1928 में भारत में प्रगतिशील वामपंथी आंदोलन के
बढ़ते हुए खतरे के खिलाफ अंग्रेजों के चौतरफा आक्रमण का एक हिस्सा था । यह
ऐतिहासिक मुकदमा साढ़े चार साल तक चला और देश भर के कम्युनिस्ट और ट्रेड यूनियन
आंदोलनों का लगभग सारा नेतृत्व इससे जुड़ गया था । इस आंदोलन का उद्देश्य श्रमिक
एवं वेतनभोगी वर्ग को जगाना और संगठित करना था, जिससे
वह देश के आर्थिक स्रोतों के अंग्रेजी शोषण के विरुद्ध राजनीतिक और आर्थिक तौर पर जागरूक
हो सके । मुकदमे की पूरी सुनवाई के दौरान अधिकांश अभियुक्तों की जमानत नहीं की गयी
थी और प्रतिवादियों की कई कोशिशों के बावजूद जूरी द्वारा मुकदमा चलाए जाने की उनकी
मांग को तुच्छ कारणों से अस्वीकृत कर दिया गया था ।
मेरठ
षड्यंत्र कांड ने, प्रतिष्ठित व्यवस्था के राजनीतिक और आर्थिक
प्रभुत्व को चुनौती देने वाले संगठित विरोध या असंतोष के खिलाफ, ब्रिटिश साम्राज्यवाद का असली चेहरा उजागर किया
था । वस्तुतः भारत में संगठित मजदूर
आंदोलनों और मार्क्सवादी प्रभाव को कुचलने का यह एक सुनिश्चित प्रयास था, क्योंकि उस समय सभी बड़े उद्योगों और व्यापारों
पर अंग्रेजों का आधिपत्य था ।
सन्
1928-1929 का दौर भारतीय इतिहास में अत्यंत महत्पूर्ण है
क्योंकि वह एक संगठित वामपंथी आंदोलन का (सभी आर्थिक और राजनीतिक अवयवों सहित)
आरंभ था । ट्रेड-यूनियनों की स्थापना ने मजदूरों को अपनी शिकायतों को सामने रखने
और अच्छे वेतन तथा बेहतर कार्य-स्थिति के लिए लड़ने योग्य बना दिया था । श्रमिक
मोर्चे पर यह सक्रियता भारत में पांव जमा रहे कम्युनिस्टों की बढ़ती गतिविधियों के
साथ-साथ बढ़ती जा रही थी । इसमें उन्हें मास्को के कम्युनिस्ट इंटरनेशनल और
यूरोपीय कम्युनिस्ट पार्टी का सहयोग भी मिल रहा था । हालांकि भारतीय कम्युनिस्ट
पार्टी भारत में काफी समय से सक्रिय थी, लेकिन
सन् 1927 तक यह आंदोलन कुछ खास अर्थवत्ता प्राप्त नहीं
कर सका था । सन् 1927 के बाद ही, खासतौर
पर 1928-29 के दौरान, कम्युनिस्टों
को ट्रेड यूनियनों और श्रमिक संगठनों में अपनी जगह बनाने के प्रयासों में यथेष्ट
सफलता मिल सकी थी और वे युवाशक्ति और देशभक्त अभिजात वर्ग की एक शक्तिशाली श्रेणी
को अपने आंदोलन के साथ जोड़ पाये थे । यहां तक कि कुछ ब्रिटिश नागरिक भी इस आंदोलन
में अपना सक्रिय योगदान दे रहे थे ।
जल्दी
ही, अंग्रेज सरकार इस खतरे के प्रति सतर्क हो गयी
थी और उसने इस आंदोलन को आरंभ में ही कुचल देने के लिए अनेक वैधानिक और प्रशासनिक
कदम उठाये थे । इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण और दमनकारी कदम था - 32 प्रमुख वामपंथी मजदूर नेताओं के खिलाफ एक बड़े
पैमाने पर मेरठ में षड्यंत्र कांड मुकदमा चलाना, जिसने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के भविष्य को और देश के पूरे वामपंथी
आंदोलन को काफी हद तक प्रभावित किया था ।
भारत
सरकार इस संबंध में इंग्लैंड की ब्रिटिश सरकार से लगातार संपर्क बनाए हुए थी और
उनसे वैधानिक और दंडात्मक युक्तियां अपनाने के बराबर निर्देश लिए जा रहे थे । हालांकि
सन् 1927 से ही प्रमुख वामपंथी नेताओं के खिलाफ एक बड़ा
षड्यंत्र केस चलाने की संभावना पर विचार किया जा रहा था, लेकिन उसका पहला प्रत्यक्ष संकेत लाई इरविन
द्वारा भारत के राज्य सचिव को भेजे गये 13
सितंबर 1928 के एक तार में मिलता है । उस समय 'पब्लिक सेफ्टी बिल' (जन सुरक्षा बिल) विधान सभा में बड़ी धीमी गति से
घिसट रहा था, जिसकी तरफ वायसराय ने कुछ यूं संकेत किया था :
"हम लोग अभी भारत भर के प्रमुख कम्युनिस्ट
नेताओं के खिलाफ षड्यंत्र का एक व्यापक मुकदमा दायर करने की संभावना पर विचार कर
रहे हैं...। और ऐसे मुकदमे में, खासतौर
पर, स्प्रैट के क्रियाकलाप अनिवार्य अंग होंगे । अतः
प्रमाणों की गहरी छानबीन के बाद, जो
अभी कम-से-कम एक महीना या छह हफ्ते और चलेगी, अगर
हमें लगता है कि एक अच्छा मामला बनता है, तो
हमें नये कानून के अंतर्गत स्प्रैट और ब्रैडले (दोनों अंग्रेज) के खिलाफ कोई
कार्यवाही नहीं करनी चाहिए,
बल्कि सामान्य कानूनों के अंतर्गत ही उन पर
मुकदमा चलाना चाहिए ।"
15 जनवरी 1929 को
गुप्तचर विभाग के निदेशक सर डेविड पेट्री ने एक षड्यंत्र मुकदमा चलाने की
संभाव्यता पर एक प्रारंभिक रिपोर्ट प्रस्तुत की । इस रिपोर्ट के आधार
पर श्री आर.के. हार्टोन नामक एक वरिष्ठ पुलिस
अधिकारी ने संभव कानूनी कार्यवाही के लिए प्रस्तुत सामग्री की जांच करने के बाद
एक रिपोर्ट में यह मत व्यक्त किया कि सम्राट को ब्रिटिश भारत की प्रभुसत्ता से वंचित
करने के
कम्युनिस्ट षड्यंत्र की उपस्थिति सिद्ध करने के लिए पर्याप्त वैधानिक प्रमाण
उपलब्ध हैं । उन्होंने इस संबंध में कई बातों
को रेखांकित किया
- 1919 से कम्युनिस्ट इंटरनेशनल का उद्भव, उसका विश्वक्रांति का
घोषित उद्देश्य, भारत में क्रांति लाने का उसका स्पष्ट इरादा, उसके लिए बनाई गयी एक
योजना, जिसमें
एम. एन. राय ने सन् 1924 में कानपुर बोल्शेविक केस के अस्थाई विराम
तक सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी
। उसके बाद कम्युनिस्ट इंटरनेशनल ने भारत
में अपने क्रियाकलापों को ग्रेट ब्रिटेन की
कम्युनिस्ट पार्टी (सी.पी.जी.बी.) और दूसरी संबंधित संस्थाओं, जार्ज एलीसन तथा विशेष रूप से फिलिप स्प्रैट, बेंजामिन ब्रेडले जैसे
विदेशी गुप्तचरों के सहयोग से जारी रखा था
।
इस
रिपोर्ट के आधार पर वायसराय ने प्रमुख भारतीय कम्युनिस्टों पर षड्यंत्र का विस्तृत
मुकदमा चलाने का फैसला किया । उनकी राय
थी कि "ऐसा मुकदमा चलाने पर मौजूदा संगठन
बिखर जायेंगे
और ऐसे मुकदमे से ज्यादा खतरनाक नेता सफलतापूर्वक हटा दिए जायेंगे
। ऐसे न्यायिक निर्णय के माध्यम से, जिस पर सवाल नहीं उठाया जा सकेगा, हम कम्युनिस्टों के वास्तविक उद्देश्यों और
तरीकों को उजागर कर सकेंगे
। इसके बाद हम कुछ खास कम्युनिस्ट संगठनों को, मसलन 'वर्कर्स एंड
पीसेंट्स पार्टी' को, 'क्रिमिनल ला एमेंडमेंट एक्ट' (अपराध कानून संशोधन अधिनियम)
के तहत अदालत के निष्कर्षों के आधार पर
गैर-कानूनी संगठन घोषित कर सकेंगे । हमारे विचार में नये विशेष अधिकार लेने की अपेक्षा इस
मुकदमे से पूरे कम्युनिस्ट आंदोलन को अधिक गंभीर आघात पहुंचेगा
।"
घटनास्थल
के रूप में मेरठ का चुनाव निम्न कारणों से किया गया था
:
बंबई और कलकत्ता- दोनों जगहों पर श्रमिक वर्ग के मौजूदा खतरनाक
हालातों को देखते हुए, इनमें से किसी भी जगह पर मुकदमा चलाना स्पष्टतः
अवांछनीय होगा
।
मेरठ
में 'वर्कर्स एंड पीसेंट्स पार्टी' की एक शाखा थी
। यहां स्प्रैट और
तथाकथित षड्यंत्रों के दूसरे महत्वपूर्ण नेता आ
चुके हैं और यह प्रमाणित किया जा सकता है कि षड्यंत्र को प्रोत्साहन
देने के लिए यहां कई कार्यवाहियां की गयीं ।
यह
मुकदमे के लिए सुविधाजनक केंद्रीय स्थान है, जिसमें
भारत भर से (बंबई, बंगाल, पंजाब
और उत्तर प्रदेश) अभियुक्त और गवाह शामिल हो
सकते हैं
। यह भारत सरकार के लिए भी काफी सुविधाजनक है, जो मुकदमे
के लिए मुख्यतः उत्तरदायी है और जिसका मूल स्थल
नयी दिल्ली ही है ।
वस्तुतः, मुकदमे के लिए मेरठ का चुनाव गृहसचिव द्वारा
पूर्वनिर्धारित किया गया था, जिसमें
जूरी द्वारा मुकदमा चलाने से बचा जा सके और बंबई तथा कलकत्ता में यह संभव
नहीं हो पाता
।
गिरफ्तारी
14 मार्च को वायसराय की परिषद् ने 31 वामपंथी नेताओं की इस आधार पर गिरफ्तारी
की स्वीकृति दी कि "उन्होंने महामहिम
सम्राट को ब्रिटिश भारत की प्रभुसत्ता से वंचित
करने का षड्यंत्र किया और इस तरह भारतीय दंड
संहिता की धारा 121-ए के अंतर्गत
दंडनीय अपराध किया।" अपराध दंड संहिता 1898 की धारा 196 के
अंतर्गत गुप्तचर विभाग के विशेष कार्यभार अधिकारी श्री एम.ए.
हार्टोन ने मेरठ जिले के न्यायाधीश की अदालत में शिकायत दाखिल की
। इन 31
वामपंथी अभियुक्तों में दो ब्रिटिश नागरिकों, स्प्रैट
और ब्रैडले के अलावा प्रसिद्ध भारतीय कम्युनिस्ट नेता पी.सी. जोशी और एस.ए.
डांगे भी थे
।
20 मार्च, 1929 को एक साथ एक दर्जन शहरों में बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां की
गयीं । जून में एक अंग्रेज पत्रकार लेस्टर हचिन्सन को
गिरफ्तार किया गया, जो सितंबर
1928 में भारत आये थे
। इस गिरफ्तारी से अभियुक्तों की संख्या 32 हो गयी ।
गिरफ्तारी
की खबर ने भारत में सनसनी फैला दी । अपनी पहल पर महात्मा गांधी अचानक 27 अक्तूबर 1929 को
मेरठ पहुंचे और उन कम्युनिस्टों से उनके बैरकों में मिले, जिन पर मुकदमा चलाया जा रहा था । उन्होंने
बंदियों के साथ लगभग दो घंटे का समय बिताया ।
21 मार्च को जवाहरलाल नेहरू ने एक वक्तव्य जारी
कर इन गिरफ्तारियों को मुख्यतः श्रमिक आंदोलन और यूथ लीग के खिलाफ निर्दिष्ट बताया
। उन्होंने दावा किया कि सरकार इन गिरफ्तारियों और तलाशियों के द्वारा 'आतंक फैलाना' चाहती है । उन्होंने अभियुक्तों के लिए अंतर्राष्ट्रीय सहानुभूति और
समर्थन तथा चंदा इकट्ठा करने का प्रयत्न किया ।
इस
तथ्य से कि अधिकांश प्रतिवादी कम्युनिस्ट हैं, उन्हें
कोई परेशानी नहीं थी, बल्कि उनकी राय में 'मेरठ मुकदमा पूरे मेहनतकश वर्ग के खिलाफ आघात
था ।' अभियुक्तों को स्थानीय पुलिस ने मेरठ में रखा
और हर दो हफ्ते बाद हिरासत में रखने का उनका रिमांड कराती रही । ब्रिटिश भारत की
प्रतिष्ठित न्याय व्यवस्था के अंतर्गत षड्यंत्र मुकदमे से पहले विशेष न्यायाधीश द्वारा
आरंभिक जांच की जानी जरूरी थी, इसलिए
भारत भर में अंधाधुंध तलाशियों और गिरफ्तारियों में जब्त किए गये भारी दस्तावेजों
के चलते मुकदमा शुरू होने में बहुत ज्यादा वक्त लगा ।
आरंभिक
जांच
आरंभिक
जांच 12 जून 1927 को
गिरफ्तारियों के लगभग 11 सप्ताह बाद शुरू हुई । इस बीच अनेक अभियुक्तों की तरफ से
व्यक्तिगत और सामूहिक तौर से पेश की गयी जमानत की अर्जियां नामंजूर की जा चुकी थीं
। हैरानी की बात यह है कि अभियोग पक्ष द्वारा जमानत की अर्जियां नामंजूर करने के
लिए दिया गया और मैजिस्ट्रेट द्वारा स्वीकार किया गया मुख्य कारण यह था कि भारत
सरकार ने यह मुकदमा काफी देखरेख के बाद शुरू किया है, अतः अभियुक्तों के अपराधी होने की पूरी संभावना
है । अतः उन्हें जमानत नहीं दी जानी चाहिए ।
मेरठ
की जिला अदालत में विशेष न्यायाधीश श्री मिलनर बाईट के समक्ष प्रारंभिक जांच शुरू
हुई । मुकदमे के पहले चार दिन (साढ़े सत्रह घंटे) अभियोग पक्ष के प्रधान वकील श्री
लैंगफोर्ड जेम्स के प्रारंभिक भाषण में निकल गये । श्री लैंगफोर्ड कलकत्ता की
यूरोपीय एसोसिएशन के अध्यक्ष थे और भारतीय स्वाधीनता और साम्यवाद कट्टर दुश्मन थे ।
उन्होंने
भारत में ब्रिटिश हुकूमत को 'स्वयं
भारतीयों की भलाई के लिए जरूरी' बताया
था । अपने प्रारंभिक भाषण में उन्होंने भारत में कम्युनिस्ट प्रचार करने के लिए
मास्को और तीसरे इंटरनेशनल की भूमिका पर बल दिया । तीसरे इंटरनेशनल के उद्भव, उद्देश्यों, संगठन, तरीकों और दांव-पेचों का विस्तृत विवरण देते
हुए उन्होंने कहा कि बोल्शेविक आंदोलन से जुड़े हुए अधिकांश लोग तीसरे इंटरनेशनल
के निर्देशानुसार 'निष्ठुर खून-खराबे और आतंक के राज में आनंद
लेते हैं' और 'मास्को
की इस समिति के कार्यक्रमानुसार हिंसा, खून-खराबा, गृहयुद्ध और आतंक का राज अपरिहार्य है ।
उन्होंने
विस्तार से भारत और एंगेल्स द्वारा प्रतिपादित कम्युनिस्ट पार्टी के वर्ग-संघर्ष और
सर्वहारा के अधिनायकत्व के सिद्धांतों की चर्चा की ।
इसके
अतिरिक्त उन्होंने मास्को द्वारा नियंत्रित-निर्देशित और भारत में साम्यवाद के प्रसार
के लिए मोहरा बनाई गयी कई एजेंसियों, जैसे
'रेड इंटरनेशनल ऑफ लेबर यूनियंस', 'नेशनल माइनोरिटीज मूवमेंट' और 'लीग
एगेंस्ट इम्पीरियलिज्म' की भूमिका की तरफ संकेत किया ।
पूरे
गैर-कम्युनिस्ट विश्व में 'कामिन्टर्न' के
विध्वंसकारी चरित्र पर बल देने के साथ-साथ श्री जेम्स ने इस बात की ओर संकेत किया
कि रूस के कम्युनिस्टों ने अपने ही देशवासियों का दमन किया है और अब वह भारत की
सामाजिक संरचना, विशेष रूप से तथाकथित राष्ट्रीय बुर्जुआजी को
नष्ट करने पर तुले हैं ।
बचाव
पक्ष की इस दलील का पुर्वानुमान करते हुए कि कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की औपचारिक शाखा
के रूप में कानूनी तौर पर कोई भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी अस्तित्व नहीं रखती है, और इसलिए भारतीय कम्युनिस्ट 'कामिन्टर्न' के
औपचारिक सदस्य नहीं है ।
सरकारी
अभियोक्ता ने यह तर्क दिया कि भारतीय कम्युनिस्ट 'तीसरे इंटरनेशनल के आदेशों पर काम कर रहे हैं यह दिखाने के लिए इतना
ही पर्याप्त है, और उनके अपराध को प्रमाणित करता है ।
अभियुक्तों
के खिलाफ श्री जेम्स ने ये अभियोग लगाये :
भारत
में अभियुक्तों का क्रियाकलाप कम्युनिस्ट साहित्य और पुस्तकों में दिए गये कम्युनिस्ट
कार्यक्रमों का निष्ठापूर्वक पालन करना था । स्प्रैट ने बंबई में 'वर्कर्स एंड पीसेंट्स पार्टी की स्थापना में
सहायता की थी और तदुपरांत ये गतिविधियां अन्य प्रदेशों में भी फैल गयीं । बंबई और
कलकत्ता की हड़तालों को अभियुक्तों ने ही उकसाया, चलाया और जारी रखा था और इस पर उन्हें गर्व था ।
सन्
1927 में उन्होंने ट्रेड यूनियन कांग्रेस को हथियाने
के लिए जोरदार प्रयास किए थे और पिछले वर्ष उन्होंने मास्को गुट का लगातार अनुसरण
किया था । उनके अखबार निरंतर साम्यवाद के 'गास्पेल' का उपदेश देते रहे थे और उन्होंने यूथ लीग
बनाकर बराबर देश के युवाओं के दिमाग में जहर घोला था । अभियुक्तों ने कई जुलूस
निकाले थे और उनमें भाग लेकर ऐसे भाषण दिये थे, जिनसे
सर्वहारा वर्ग को जागरूक कर वर्ग संघर्ष और सर्वहारा के अधिनायकत्व के रहस्यों में
उतारा जा सके।
उनका
भाषण दस दिन चला, जिसे देखकर ब्रिटिश ट्रेड यूनियन कांग्रेस के
मुख्य सचिव वाल्टर सिटरीन ने यह टिप्पणी किए बिना नहीं रह सके - "ऐसा लगता है, मानो सरकारी अभियोक्ता हाईड पार्क की किसी सभा
को संबोधित कर रहे हैं... "
बचाव
पक्ष में कई नामी भारतीय वकील उपस्थित थे, जैसे
कि के.एफ. नरीमन, डी.पी. सिन्हा, एम.सी. चागला,
सी.बी. गुप्ता, के.सी. चक्रवर्ती, इत्यादि
। बचाव पक्ष के वरिष्ठ वकील डी.पी. सिन्हा ने कहा कि यह सरकार का ऐसा पहला
सुव्यवस्थित मुकदमा था, जो कुछ व्यक्तियों द्वारा कुछ निश्चित विचार, आदर्श और निश्चित विश्वास रखने भर के कारण
चलाया जा रहा था, हालांकि उन व्यक्तियों के क्रियाकलाप गैरकानूनी
नहीं थे ।
एक
अन्य बचाव पक्ष के वकील के.सी. चक्रवर्ती ने तर्क दिया कि सरकारी अभियोक्ता द्वारा
गिनाए गये अभियोगों को देखकर ऐसा लगता है, मानो
सरकार अभियुक्तों के साथ-साथ सोवियत सरकार पर भी मुकदमा चला रही हो । उन्होंने
कहा-"अतः, ऐसे षड्यंत्र कांड मुकदमे में सिर्फ एक ही
कानून लागू होता है, 'ला आफ नेशन्स' का कानून और मेरठ के जिला न्यायालय जैसे म्युनिसिपल ट्रिब्यूनल को
ऐसा मुकदमा चलाने का कोई अधिकार नहीं है।"
अभियोग
पक्ष द्वारा मुकदमे के उपस्थापना में 320
गवाहों से जिरह की गयी और (7,000 मुद्रित पृष्ठों में) 12,500 साक्ष्य दाखिल किये गये । इसके बाद सभी
अभियुक्त ने अपना अपराध अस्वीकार किया । ज्यादातर प्रतिवादियों ने न तो अभियोग के
गवाहों से जिरह करने के अपने अधिकार का उपयोग किया, न बयान दिये और न ही अदालत में अपनी तरफ से कोई गवाह पेश किये । केवल
तीन अभियुक्तों ने अपनी सफाई में विशिष्ट बयान दिये । डा. धर्मवीर सिंह ने कहा कि
वह कभी कम्युनिस्ट नहीं रहे, बल्कि
गांधी के अनुयायी होने के नाते कम्युनिस्ट उद्देश्यों और तरीकों के विरोधी थे । एस.एच. झाबवाला ने तर्क दिया कि वह 'पारसी मानवतावादी थे, जबकि आल्वे ने खुद को एक 'किसान और मजदूर' घोषित किया ।
मेरठ
षड्यंत्र कांड मुकदमे का पहला चरण, अर्थात्
मजिस्ट्रेट द्वारा जांच का दौर सात महीने चलने के बाद 15 दिसंबर 1929 को
खत्म हुआ । 13 जनवरी 1930 को
32 अभियुक्तों में से 31 पर श्री मिलनर वाईट ने मुकदमा चलाए जाने का
निर्णय दिया । डा. धर्मवीर सिंह के अलावा सभी बंदियों को मेरठ की विशेष सेशन अदालत
के सुपुर्द कर दिया गया । एम. एन. राय को उस समय तक गिरफ्तार न किया जा सका था, अतः उन पर अलग से मुकदमा चलाया गया ।
अभियुक्तों
ने मुकदमे को किसी प्रेसिडेंसी शहर में स्थानांतरित करने के प्रयास किये, जिससे जूरी बिठाई जा सके, लेकिन उनकी इस मांग को अस्वीकार कर दिया गया । ऐसी
पहली याचिका 16 जुलाई 1929 को
इलाहाबाद के मुख्य न्यायाधीश को दी गयी । उन्होंने यह कहकर उसे नामंजूर कर दिया कि
मुकदमा "इस देश की सर्वाधिक सामान्य स्थितियों" में चलाया जा रहा है और
उन्हें नहीं लगता कि किसी को इससे असुविधा होगी, बल्कि "सभी मेरठ के आराम से आदी हो जायेंगे।"
स्थानांतरण
की अंतिम याचिका 24 जनवरी 1930 को
सर तेज बहादुर सप्रू ने दी । उन्होंने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश
को 31 अभियुक्तों की तरफ से यह अपील की कि उनका
मुकदमा इलाहाबाद उच्च न्यायालय में स्थानांतरित कर दिया जाये और उसके लिए एक जूरी
बिठाई जाये । 27 जनवरी 1930 को
मुख्य न्यायाधीश ने याचिका को खारिज कर यह आदेश दिया कि मुकदमा मेरठ की सेशन अदालत
में ही चलाया जाये । उन्होंने कहा कि हो सकता है कि जूरी न्यायसम्मत दृष्टिकोण न
अपनाए । उन्होंने यह भी कहा कि वे "जूरी द्वारा मुकदमा चलाने के पक्ष में
नहीं हैं क्योंकि जूरी को असंख्य दस्तावेजों को पढ़ना और समझना होगा... जूरी के
किसी भी सदस्य के लिए यह एक अतिमानवीय कार्य होगा । परिणामतः एक अकेला न्यायाधीश
ही इस तरह के मामले में निष्पक्ष और
न्यायसम्मत निर्णय दे सकता है।" अतः मेरठ में एक न्यायाधीश को इतने गंभीर
वैधानिक मुद्दों पर 31 अभियुक्तों पर मुकदमा चलाने के सर्वथा योग्य
समझा गया ।
षड्यंत्र
कांड मुकदमे का दूसरा चरण,
अर्थात् औपचारिक मुकदमा 31 जनवरी 1930 को
मेरठ की विशेष सेशन अदालत में आर.एल. यार्क और पांच भारतीय निर्धारकों के सामने
शुरू हुआ । अभियोग पक्ष ने 281
गवाह और 2,600 दस्तावेज पेश करने के बाद 17 मार्च 1931 को
अपना पक्ष खत्म किया ।
इसके
बाद अभियुक्तों की औपचारिक सफाई प्रस्तुत की गयी और बंदियों के औपचारिक बयान पेश
किए गये । मुकदमा 16 जून 1932 को
अपने अंतिम चरण में पहुंचा,
जब साम्राज्य के विशेष अभियोक्ता श्री एम.एल.
कैम्प ने लगभग दो महीने लंबा अंतिम समापन भाषण दिया । भारतीय वैधानिक प्रक्रिया के
अनुपालन में निर्धारकों ने 17
अगस्त 1932 को अपना मत प्रस्तुत किया । यह केवल अभिमत था, निर्णय नहीं, अतः कानूनी तौर पर बाध्य नहीं था । फिर भी, यह उल्लेखनीय है कि उन्होंने अधिकांशतः तथाकथित
कम्युनिस्टों को 'अपराधी' तथा
तथाकथित गैर-कम्युनिस्टों को 'निरपराध' पाया ।
पांच महीने की देरी के बाद 17 जनवरी 1933 को सेशन न्यायाधीश आर. एल. यार्क ने अपना फैसला सुनाया, जो कानूनी तौर पर निर्णय था, लेकिन जिस पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अपील की जा सकती थी । 31 अभियुक्तों में से 3 बंगाली ट्रेड यूनियन नेताओं-शिबनाथ बनर्जी, किशोरीताल घोष और बी.एन. मुकर्जी को किसी वामपंथी दल के सदस्य न होने के कारण बरी कर दिया गया । बंबई की 'चर्कर्स एंड पीसेंट्स पार्टी' के अध्यक्ष डा. आर. ठेंगड़ी की मुकदमे के दौरान ही मृत्यु हो गयी थी । बाकी 27 व्यक्तियों को 'अपराधी' पाया गया और उन्हें तीन साल से लेकर आजीवन कारावास तक की कड़ी सजाएं दी गयीं । मुजफ्फर अहमद को आजीवन निर्वासन का दंड दिया गया था ।
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