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भगत सिह का मुकदमा । सांडर्स हत्याकांड । लाहौर षड्यंत्र केस | Sandarsh Hatyakand | Lahore Conspiracy Case

भगत सिह का मुकदमा । सांडर्स हत्याकांड । लाहौर षड्यंत्र केस | Sandarsh Hatyakand | Lahore Conspiracy Case  जब भगत सिह जेल में थे , तभी सांडर...

भगत सिह का मुकदमा । सांडर्स हत्याकांड । लाहौर षड्यंत्र केस | Sandarsh Hatyakand | Lahore Conspiracy Case 


जब भगत सिह जेल में थे, तभी सांडर्स हत्याकांड (लाहौर षड्यंत्र मुकदमा, 1929 के नाम से प्रसिद्ध) विशेष मजिस्ट्रेट की अदालत में शुरू हुआ । यह मुकदमा भी उन पर जेल में अंदर ही चलाया गया । यह मुकदमा 10 जुलाई 1929 को शुरू हुआ । इसमें 27 व्यक्ति शामिल थे । 27 में से 6 फरार थे और उन्हें ढूंढ़ा नहीं जा सका । बाकी 18 दिन में तीन को विभिन्न धाराओं में बरी कर दिया गया ।

फणीन्द्र नाथ घोष और भगत सिंह समेत बाकी 15 व्यक्तियों पर मुकदमा चलाया गया सात व्यक्ति-रामशरण दास, ब्रह्म दत्त, जयगोपाल, मनमोहन बनर्जी, हंसराज बोहरा और ललित कुमार मुखर्जी मुखबिर बन गये पहले दो को अविश्वसनीय मानकर बाकी पांच मुखबिरों के आधार पर मुकदमा चलाया गया
 
सभी अभियुक्त युवा थे वे अपना परिणाम जानते थे, इसलिए उन्होंने इस मामले को गंभीरता से नहीं लिया और उसके प्रति बिलकुल उदासीन रहे भगत सिंह और उनके साथियों ने अदालत और उसकी कार्यवाही की हंसी उड़ाने के कई तरीके अपनाये इनमें कार्यवाही के एकदम बीच भगत सिंह का क्रांतिकारी गीत गाना और नारे लगाना सम्मिलित था, जिसमें दूसरे साथी भी शामिल हो जाते थे और इस तरह अदालत की कार्यवाही को, जो उनके लिए महज तमाशा थी, बाधित करते थे कई बार तो वे अदालत में जाने से ही इंकार कर देते थे और उन्हें जबर्दस्ती वहां ले जाया जाता था इससे गंभीर वैधानिक और व्यावहारिक समस्याएं पैदा हो जाती थीं, क्योंकि अभियुक्तों पर हत्या का मुकदमा चलाया जा रहा था और उनकी अनुपस्थिति में अदालत की कार्यवाही नहीं हो सकती थी
 

इन समस्याओं से उबरने के लिए, खासतौर पर अदालत में उनकी मौजूदगी से छुटकारा पाने के लिए पंजाब सरकार ने भारत सरकार से सहायता मांगी भारत सरकार ने पहली मई, 1930 को अध्यादेश नं. 3 लागू किया इस अध्यादेश ने मुदकमे को एक ऐसे विशेष ट्रिब्यूनल को सौंप दिया, जो प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान गदरपार्टी पर चलाये गये मुकदमे की तरह, लाहौर के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों द्वारा बनाया गया था हठधर्मी अवरोध से निपटने के लिए इस ट्रिब्यूनल को विशेष अधिकार दिये गये थे
 
'दि गजट आफ एक्स्ट्राआर्डिनरी', शिमला, पहली मई, 1930 में 1930 का तीसरा अध्यादेश प्रकाशित किया गया इस अध्यादेश को 'लाहौर षड्यंत्र कांड' का नाम दिया गया इसमें कहा गया कि लाहौर में प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट राय साहेब पंडित श्री कृष्ण की अदालत में 24 व्यक्तियों के खिलाफ चल रहे सभी विचाराधीन मुकदमों को धारा 4 के अंतर्गत निर्मित ट्रिब्यूनल द्वारा चलाया जायेगा
 
लाहौर षड्यंत्र मुकदमा लाहौर में पूंच हाउस में चलाया गया और विशेष ट्रिब्यूनल ने न्यायाधीश श्री जे. कोल्डस्ट्रीम की अध्यक्षता में न्यायाधीश श्री आगा हैदर और न्यायाधीश श्री जी.सी. हिल्टन की सदस्यता में 5 मई 1930 को अपनी कार्यवाही शुरू की
 
कार्यवाही सुबह 11 बजे शुरू हुई क्रांतिकारी अभियुक्तों को दस बज कर दो मिनट पर अदालत में लाया गया था समकालीन दस्तावेजों के अनुसार "उन्होंने कुछ समय क्रांतिकारी नारे लगाये और फिर आठ मिनट तक एक क्रांतिकारी गीत गाया ।" दिल्ली में अपने असेंबली बम कांड के पूर्ववर्ती मुकदमे की तरह यहां भी भगत सिंह ने अपनी सफाई के लिए कोई कानूनी वकील करने से इंकार किया, क्योंकि वे पूरे मुकदमे को एक ढकोसला मानते थे लेकिन दोस्तों और संबंधियों के आग्रह पर उन्होंने ट्रिब्यूनल की कार्यवाही पर नजर रखने और जिरह के लिए उन्हें परामर्श देने के लिए एक कानूनी परामर्शदाता का सहयोग लेना स्वीकार कर लिया
 
उन्होंने अदालत के सामने यह स्पष्ट किया कि यह कानूनी परामर्शदाता न तो गवाहों से जिरह करेगा और न ही न्यायालय को संबोधित करेगा श्री दुनी चंद को अपना कानूनी परामर्शदाता नियुक्त करने पर वह सहमत हो गये
 
मुकदमे के दौरान भगत सिंह ने अपनी सफाई पेश नहीं की उनके लिए मुकदमे का अर्थ अपना जीवन बचाने की बजाय देश की आजादी के लिए अपने क्रांतिकारी विचारों का प्रसार करना अधिक था 20 सितंबर 1930 को, जब यह स्पष्ट हो चुका था कि भगत सिंह को मृत्यु दंड सुनाया जायेगा, उनके पिता किशन सिंह ने पितृतुलभ प्रेम और भावनाओं से विचलित होकर अपने पुत्र को फांसी के फंदे से बचाने का प्रयत्न किया उन्होंने ट्रिब्यूनल के सामने यह याचिका पेश की, जिसकी प्रतिलिपि वायसराय ऑफ इंडिया को दी गयी थी इस याचिका में इस बात का प्रमाण प्रस्तुत करने की अनुमति मांगी गयी थी, कि सांडर्स की हत्या के दिन भगत सिंह लाहौर में नहीं थे वह अन्यत्रता स्थापित करना चाहते थे जब भगत सिंह को इसका पता चला, तो वह अत्यंत क्रोधित हो उठे वह ऐसी कोई सफाई सुनना तक नहीं चाहते थे
 
उन्होंने अपने पिता को लिखा : "मुझे यह जानकर हैरानी हुई कि आपने मेरे बचाव पक्ष के लिए स्पेशल ट्रिब्यूनल को एक आवेदन भेजा है यह खबर इतनी यातना देने वाली थी कि मैं इसे खामोशी से बर्दाश्त नहीं कर सका इस ख़बर ने मेरे भीतर की शांति भंग कर उथल-पुथल मचा दी है मैं यह नहीं समझ सकता कि वर्तमान स्थितियों में और इस मामले में आप किस तरह का आवेदन दे सकते हैं ? एक पिता की भावनाओं और इच्छाओं के बावजूद आपको मेरे साथ सलाह-मशविरा किये बिना ऐसा आवेदन देने का कोई अधिकार नहीं था आप जानते हैं कि राजनैतिक क्षेत्र में मेरे विचार आपसे काफी अलग हैं मैं आपकी सहमति या असहमति के बिना यहां स्वतंत्रतापूर्वक काम करता रहा हूं ।"
 
मृत्युदंड का सामना करते वक्त भी यह था उनका विश्वास और यह था उनका साहस जैसा कि सबको मालूम था, अदालत ने भगत सिंह और उनके साथियों को दोषी पाया
 
अदालत के निष्कर्षों में भगत सिंह के विरुद्ध तीन तरह के प्रमाण थे :
 
(क) वह चश्मदीद गवाह, जिसने उन्हें यह हत्या करते और फरार होते देखा । वह गवाह, जिसने उन्हें पहचाना।
 
(ख) दो इकबाली गवाह-जयगोपाल और हंसराज बोहरा, जो इस हत्या में भागीदार और उनके सहयोगी थे ।
 
(ग) भगत सिंह द्वारा लिखे गये इश्तहार (स्कॉट पर गया), जिन्हें लिखाई विशेषज्ञों ने उनके द्वारा लिखा गया माना ।
 
भगत सिंह को भारतीय दंड संहिता की धाराओं 121, 302 के अंतर्गत तथा विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 4 (बी) के अंतर्गत, उसी अधिनियम की धारा 6 (एफ) तथा भारतीय दंड संहिता की धारा 120 (बी) के साथ पढ़े जाने पर, दंडित किया गया ।
 
इस मुकदमे का फैसला 7 अक्तूबर 1930 को सुनाया गया: "इस सुविचारित और कायरतापूर्ण हत्या में उनकी भागीदारी तथा षड्यंत्र के एक मुख्य नेता के रूप में उनकी हैसियत को देखते हुए उन्हें मृत्यु हो जाने तक फांसी पर लटकाए जाने का दंड दिया जाता है ।"
 
भगत सिंह की तरह उनके साथियों सुखदेव और राजगुरु को भी मृत्युदंड दिया गया । बाकी को आजीवन निर्वासन का दंड दिया गया । कुंदन ताल और प्रेमदत्त को क्रमशः सात और पांच साल के कारावास की सजा दी गयी । अजय घोष, जे.एन. सान्याल और देसराज को बरी कर दिया गया । फरार व्यक्तियों में से भगवती चरण मई 1930 में एक बम विस्फोट में मारे गये और चंद्रशेखर आजाद इलाहाबाद के आजाद पार्क में फरवरी 1931 में एक पुलिस मुठभेड़ में शहीद हुए ।
 
इस मृत्युदंड की सजा सुनाये जाने के बाद भी यह न्यायिक युद्ध समाप्त नहीं हुआ । कुछ विशिष्ट व्यक्तियों से निर्मित बचाव परिषद् ने प्रिवी काउंसिल में एक अर्जी देने का निर्णय किया, जिससे विशेष ट्रिब्यूनल बनाए जाने के अध्यादेश को चुनौती दी जा सके और भारत के स्वाधीनता संग्राम का प्रचार-प्रसार विदेश में किया जा सके । 10 फरवरी 1930 को प्रिवी काउंसिल द्वारा यह अर्जी नामंजूर कर दी गयी । 14 फरवरी 1931 को पंडित मदनमोहन मालीवय ने इससे हार मानने की बजाय वायसराय के समक्ष अपील की और उनसे दया के अपने विशेषाधिकार का इस्तेमाल कर मानवीय आधार पर मृत्युदंड को आजीवन निर्वासन में बदलने का अनुरोध किया ।
 
16 फरवरी 1931 को जीवन लाल, बलजीत और शाम लाल ने उच्च न्यायालय में बंदी प्रत्यक्षीकरण की याचिका दायर करते हुए उनके कारावास और प्रस्तावित मृत्युदंड की वैधता को इस आधार पर चुनौती दी कि फांसी की प्रारंभिक बानीख (अक्तूबर, 1980 में कोई दिन) निकल जाने के कारण ट्रिब्यूनल अब अस्तित्व नहीं रखता । लेकिन इस याचिका को भी नामंजूर कर दिया गया ।
 
इसमें पूरे भारत में रोष फैल गया । अंग्रेजों के खिलाफ अपने संघर्ष में स्वाधीनता सेनानी इससे और अधिक एकजुट हुए । सरकार ने निर्णय लिया कि फांसी की सजा 23 मार्च 1931 को दी जायेगी । यह निर्णय केंद्रीय सरकार ने निम्न तार द्वारा पंजाब सरकार को प्रेषित किया :
"भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को 23 मार्च को शाम सात बजे फांसी दी जायेगी । इसकी खबर लाहौर में 24 मार्च को प्रातःकाल ही लग पायेगी ।"
 
 
रात के अंधेरे में उन्हें फांसी दे दी गयी और यह घोषणा की गयी : "जनता को सूचित किया जाता है कि भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के मृत शरीरों को, जिन्हें कल शाम (23 मार्च) फांसी दे दी गयी थी, जेल से सतलज के किनारे लेजाया गया, जहां सिख और हिंदू धर्म विधि के अनुसार उनका दाह-संस्कार कर दिया गया और उनके अवशेष नदी में प्रवाहित कर दिये गये ।"

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