आजाद हिंद फौज मुकदमा (1945-1946) दिल्ली के लाल किले में दो महत्वपूर्ण ऐतिहासिक मुकदमे चलाये गये थे । राष्ट्रीय- अंतर्राष्ट्रीय ...
आजाद हिंद फौज
मुकदमा
(1945-1946)
दिल्ली के लाल किले में दो महत्वपूर्ण ऐतिहासिक मुकदमे
चलाये गये थे । राष्ट्रीय- अंतर्राष्ट्रीय महत्व के कानूनी मुद्दों से जुड़े होने के कारण इन दोनों
मुकदमों ने राजनीतिक इतिहास की दिशा ही बदल दी थी ।
सन् 1858 में दिल्ली के लाल किले में अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह
ज़फर पर एक ऐतिहासिक
मुकदमा चलाया गया था । इसने भारत में मुगल शासन पर अंतिम
आघात कर अंग्रेजों की प्रभुसत्ता स्थापित की थी । इस मुकदमे से अंतर्राष्ट्रीय
कानून के महत्वपूर्ण प्रश्न जुड़े थे, मसलन क्या एक बादशाह पर मुकदमा चलाया जा सकता है और क्या ऐसा मुकदमा न्यायसम्पत है ? इसी तरह 1915 में लाल किले
में ही आजाद हिंद फौज (आई.एन.ए.) नामक
एक और असाधारण मुकदमा चलाया गया ।
पंडित जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में "भारत की दीवानी
या फौजी अदालत में ऐसा कोई दूसरा मुकदमा नहीं है, जो राष्ट्रीय महत्व के आधारभूत मुद्दों से इतना
जुड़ा हो और जिसने जनता का इतना ध्यान आकृष्ट किया हो ।इससे जुड़े वैधानिक मुद्दे
तो महत्वपूर्ण थे ही, क्योंकि वे
अंतर्राष्ट्रीय कानून जैसी अनिश्चित और लचीली अवधारणा से संबंधित प्रश्न उठाते थे, लेकिन कानून के
अलावा उसमें कुछ और भी था,
जो कहीं ज्यादा गंभीर
और जरूरी था, जो भारतीय जनमानस
के अवचेतन को झकझोरता था । आजाद हिंद फौज भारत के स्वाधीनता संघर्ष का प्रतीक बन
गयी थी । बाकी सब सवाल गौण हो गये थे, यहां तक कि, मृत्युदंड के अभियोग से अभिशस्त तीनों व्यक्तियों के
व्यक्तित्व भारत के उस विस्तृत फलक पर धुंधला गये थे । मुकदमे ने इंग्लैंड बनाम
भारत के पुराने संघर्ष को एक नाटकीय और मूर्त रूप प्रदान किया था । वास्तविकता में
वह कानून या न्यायिक वाक्पटुता और योग्यता का सवाल नहीं रह गया था, हालांकि वहां
पर्याप्त योग्यता और वाक्पटुता मौजूद थी, बल्कि वह भारतीय जनता के संकल्प और भारतीय शासकों के इरादों
के बीच शक्ति संघर्ष का मुकदमा बन गया था और इस मुकाबले में जीत आखिरकार भारतीय
जनता की संकल्पशक्ति की हुई थी ।"
सुभाषचंद्र बोस के नेतृत्व में आजाद हिंद फौज की स्थापना के
इतिहास में जाना यहां अपेक्षित नहीं है, क्योंकि उसके ऐतिहासिक तथ्य सुपरिचित हैं ।
1/14 पंजाब रेजिमेंट
के कैप्टन शाह नवाज खान, लेफ्टिनेंट
गुरबक्श सिंह ढिल्लों और 2/10 बलूच रेजिमेंट
के कैप्टन प्रेमकुमार सहगल ऐसे तीन अफसर थे, जो 1943-45 के दौरान
सिंगापुर (शोनन) में सुभाषचंद्र बोस के नेतृत्व में प्रोविजनल गवर्नमेंट आफ इंडिया
(आजाद हिंद की
अंतरिम सरकार) द्वारा बनाई गयी आजाद हिंद फौज में भरती हुए थे । मित्र देशों की
सेना द्वारा मलाया और बर्मा पर दोबारा आधिपत्य स्थापित कर लेने के बाद इन अफसरों
को युद्धबंदियों के रूप में गिरफ्तार कर लिया गया और दिल्ली के लालकिले में लगाई
गयी फौजी अदालत में उन पर मुकदमा चलाया गया । तीनों अफसरों पर भारत में महामहिम
सम्राट के विरुद्ध युद्ध करने का अभियोग लगाया गया था । लेफ्टिनेंट ढिल्लों पर 6 मार्च 1945 को या आसपास हरि
सिंह, दुली चंद, दरयाव सिंह और
धरम सिंह की हत्या करने का आरोप था और बाकी दोनों पर हत्या के लिए उकसाने का । मुकदमा
5 नवंबर 1945 को शुरू हुआ और 31 दिसंबर 1945 तक चला ।
थोड़े-थोड़े दिनों के लिए मुकदमा दो महीनों से भी ज्यादा
समय तक चला, जिस बीच अभियोग
पक्ष ने प्रमाणों के तौर पर विशालकाय दस्तावेज प्रस्तुत किये और अभियुक्तों के
खिलाफ लगाये गये गंभीर अभियोगों के प्रमाण स्वरूप कई गवाह पेश किये ।
लगाये गये अभियोग थे :
पहला अभियोग : अभियुक्त नं. आई.सी.-58, 1/14 रेजिमेंट के
कैप्टन शाह नवाज खान, अभियुक्त नं.
आई.सी.-226, 2/10 बलूच रेजिमेंट
के कैप्टन पी. के. सहगल, अभियुक्त नं.
आई.सी.-336, 1/14 पंजाब रंजिमेंटे
के लेफ्टिनेंट गुरबक्श सिंह ढिल्लों ने, जो सी.एस. डी.आई.सी. (1) दिल्ली से सम्बद्ध और कमीशंड अफसर हैं, मलाया, रंगून, पोपा के नजदीक, क्याकपाडोंग के
आसपास, बर्मा में अन्य
स्थानों पर हत्याएं कीं, और सितंबर 1942 से 26 अप्रैल 1945 के दौरान भारत
के महामहिम सम्राट के खिलाफ युद्ध किया ।
दूसरा अभियोग: इंडियन आर्मी एक्ट (भारतीय सेना अधिनियम) की
धारा 41 (केवल उक्त
लेफ्टिनेंट गुरबक्श सिंह ढिल्लों के खिलाफ) । कि उन्होंने (लेफ्टिनेंट ढिल्लो ने) 6 मार्च 1945 को या उसके लगभग, बर्मा में पोपा
हिल में या उसके आसपास हरि सिंह की हत्या कर भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के खिलाफ अपराध
किया ।
तीसरा अभियोग: इंडियन आर्मी एक्ट, धारा 41 (केवल उक्त कैप्टन
पी.के. सहगल के खिलाफ) । कि उन्होंने भारतीय दंड संहिता की धारा 109 के खिलाफ दीवानी
अपराध किया, क्योंकि उन्होंने
6 मार्च 1945 को या उसके लगभग, पोपा हिल या उसके
आसपास दूसरे अभियोग में उल्लिखित हरि सिंह की हत्या के लिए उकसाया और इसके परिणामस्वरूप
उक्त अपराध किया गया ।
चौथा अभियोग: इंडियन आर्मी एक्ट, धारा 41 (केवल उक्त
लेफ्टिनेंट गुरबक्श सिंह ढिल्लों के खिलाफ) । कि उन्होंने भारतीय दंड संहिता की
धारा 302 के खिलाफ कि 6 मार्च 1945 को या उसके लगभग, बर्मा में पोपा
हिल में या उसके आसपास दुली चंद की हत्या करने का अपराध किया ।
पांचवा अभियोग: इंडियन आर्मी एक्ट, धारा 41 (केवल उक्त कैप्टन
पी.के सहगल के खिलाफ) । कि उन्होंने भारतीय दंड संहिता की धारा 109 के खिलाफ, ऐसा अपराध करने
को उकसाया, जो भारतीय दंड
संहिता की धारा 302 के तहत दंडनीय अपराध
है, अर्थात् उन्होंने
6 मार्च 1945 को या उसके लगभग, पोपा हिल में या
उसके आसपास, चौथे अभियोग में
उल्लिखित दुली चंद की हत्या के लिए उकसाया और जिसके परिणामस्वरूप यह अपराध किया
गया ।
छठा अभियोग: इंडियन आर्मी एक्ट, धारा 41 (केवल उक्त
लेफ्टिनेंट गुरबक्श सिंह ढिल्लों के खिलाफ) । कि उन्होंने भारतीय दंड संहिता की
धारा 302 के खिलाफ, 6 मार्च 1945 को या उसके लगभग, बर्मा में पोपा
हिल में या उसके आसपास, दरयाव सिंह की
हत्या करने का अपराध किया ।
सातवां अभियोग: इंडियन आर्मी एक्ट, धारा 41 (केवल उक्त कैप्टन
पी.के. सहगल के खिलाफ) । कि उन्होंने भारतीय दंड संहिता की धारा 109 के खिलाफ, ऐसा अपराध करने
को उकसाया, जो भारतीय दंड
संहिता की धारा 302 के तहत दंडनीय अपराध
है, अर्थात् उन्होंने
6 मार्च, 1945 को, या उसके लगभग, पोपा हिल में, या उसके आसपास
छठे अभियोग में उल्लिखित दरयाव सिंह की हत्या के लिए उकसाया और जिसके परिणामस्वरूप
यह अपराध किया गया ।
आठवां अभियोग: इंडियन आर्मी एक्ट, धारा 41 (केवल उक्त
लेफ्टिनेंट गुरबक्श सिंह ढिल्लों के खिलाफ) । कि उन्होंने भारतीय दंड संहिता 302 के खिलाफ 6 मार्च 1945 को या उसके लगभग, बर्मा में पोपा
हिल में या उसके आसपास धरम सिंह की हत्या करने का अपराध किया ।
नवां अभियोग: इंडियन आर्मी एक्ट, धारा 41 (केवल उक्त कैप्टन
पी.के. सहगल के खिलाफ) । कि उन्होंने भारतीय दंड संहिता की धारा 109 के खिलाफ ऐसा
अपराध करने को उकसाया जो भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के तहत दंडनीय
है अर्थात् उन्होंने 6 मार्च 1945 को या उसके लगभग, पोपा हिल में या
उसके आसपास, आठवें अभियोग में
उल्लिखित धरम सिंह की हत्या के लिए उकसाया और जिसके परिणामस्वरूप यह अपराध किया
गया ।
दसवां अभियोग : इंडियन आर्मी एक्ट, धारा 41 (केवल उक्त कैप्टन
शाह नवाज
खान के खिलाफ) । कि उन्होंने भारतीय दंड संहिता की धारा 109 के खिलाफ ऐसा अपराध करने को उकासाया जो भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के तहत दंडनीय है, अर्थात् उन्होंने 29 मार्च 1945 को या उसके लगभग, बर्मा में पोपा हिल में या उसके आसपास, खाजिन शाह और आया सिंह को एच.के.एस.आर.ए. के मुहम्मद हुसैन की हत्या करने को उकसाया और जिसके परिणामस्वरूप यह अपराध किया गया।
तीनों ही अभियुक्तों ने अपना दोष अस्वीकार किया । अभियोग
पक्ष द्वारा सर एन. पी. इंजीनियर ने मुकदमे का आरंभ करते हुए कहा कि अभियुक्त
भारतीय सेना के कमिशंड अफसर थे और महामहिम सम्राट के प्रति प्रतिज्ञाबद्ध होने के
कारण आर्मी एक्ट के अधीन थे । आजाद हिंद फौज की स्थापना का इतिहास बताते हुए
उन्होंने कहा कि सुभाषचन्द्र बोस जनवरी 1942 में भारत से
काबुल और वहां से मास्को के रास्ते जर्मनी चले गये थे ।
15 फरवरी 1912 को जापान द्वारा
सिंगापुर जीत लेने के बाद कर्नल हुंड ने ब्रिटिश सरकार की तरफ से लगभग 40,000 भारतीय
युद्धबंदियों को जापान के प्रतिनिधि को सौंप दिया था । इससे विदेश में बसे
भारतीयों के शक्ति संघर्ष को बल मिला । उन्होंने इंडिपेंडेंस लीग (आजाद हिंद संघ)
की स्थापना की जिसका अधिवेशन जून 1942 को बैंकाक में हुआ, जहां आजाद हिंद फौज बनाने का प्रस्ताव पारित किया गया और सुभाषचंद्र बोस को
देश के उस भू-भाग में आमंत्रित करने का निर्णय भी लिया गया । सितंबर 1942 में कैप्टन मोहन
सिंह के नेतृत्व में आजाद हिंद फौज की स्थापना की गयी, जिसमें भारतीय
युद्धबंदियों में से अनेक सैनिकों को भरती किया गया । कैप्टन मोहन सिंह अत्यंत
स्वतंत्र विचारों के थे, अतः उनके
जापानियों ने कुछ मतभेद हो गये
। नवंबर 1942 में फौज भंग कर
दी गयी । और कैप्टन मोहन सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया । जापान में प्रधानमंत्री
तोजो से मिलने के बाद सुभाषचंद्र बोस 2 जुलाई 1943 को सिंगापुर पहुंचे और 21 अक्तूबर 1943 को उन्होंने इंडियन इंडिपेंडेंस लीग का नेतृत्व संभाला । सिंगापुर
में आजाद हिंद की अंतरिम सरकार बनाई गयी । जापान, जर्मनी, थाईलैंड और मनचोकिया ने उसे मान्यता दी । जापान ने अंडमान
और निकोबार द्वीप समूह को इस अंतरिम सरकार को सौंप देना स्वीकार किया और इस तरह
आजाद हिंद फौज का नाम विश्व भर में फैल गया ।
अभियोगों के समर्थन में अभियोग पक्ष की तरफ से 30 गवाहों को पेश
किया गया । बचाव पक्ष के वकील द्वारा उनसे जिरह करने के बाद तीनों अभियुक्तों के
बयान दर्ज किये गये । कैप्टन शाह नवाज खान ने उन पर मुकदमा चलाने के न्यायालय के
अधिकार को चुनौती दी । अपने बयान में उन्होंने स्पष्ट किया कि वह आजाद हिंद फौज
में कब और क्यों भरती हुए । उन्होंने आजाद हिंद फौज की स्थापना की मुख्य घटनाओं
तथा उसमें भरती होने के कारणों का उल्लेख किया । उन्होंने कहा-"संक्षेप में, मेरे सामने सम्राट
या देश में से किसी एक को चुनने का प्रश्न था । मैंने अपने देश के प्रति निष्ठावान
होने का फैसला किया और नेताजी को वचन दिया कि मैं देश की खातिर अपनी जान भी दे
दूंगा । अंतत, महोदय मैं आपको
बता देना चाहता हूं कि किसी भाड़े की सेना या कठपुतली सेना ने आजाद हिंद फौज जैसे
कष्ट नहीं झेले होंगे । हमने सिर्फ हिंदुस्तान की आजादी के लिए युद्ध किया । मैं
इस युद्ध में भाग लेने से इंकार नहीं करता, लेकिन मैंने आजाद हिंद की अंतरिम सरकार की उन नियमित युद्धरत
सेनाओं के सदस्य के तौर पर ऐसा किया, जिन्होंने अपनी मातृभूमि की आजादी के लिए युद्ध के सभ्य
नियमों के अनुसार ही लड़ाई छेड़ी थी । इसलिए, मैंने ऐसा कोई अपराध नहीं किया, जिसके लिए मुझ पर, फौजी अदालत में
या दूसरी किसी अदालत में,
मुकदमा चलाया जा
सके । "
कैप्टन पी.के. सहगल ने भी अदालत के न्यायाधिकार को चुनौती
देते हुए कहा - “मैंने ऐसा कोई
अपराध नहीं किया है, जैसा अभियोग मुझ
पर लगाया गया है । इस फौजी अदालत में मुझ पर चलाया गया मुकदमा भी गैरकानूनी है । मैं
जापानी दुर्व्यवहार से डरकर या किसी स्वार्थ हेतु या दूसरे किसी कारण से आजाद हिंद
फौज में भरती नहीं हुआ था । सितंबर 1943 में आजाद हिंद फौज के कैप्टन के रूप में मुझे अस्सी डालर
प्रतिमाह मिलते थे, जबकि इस फौज से
दूर रहने पर मुझे 120 डालर प्रतिमाह
मिले होते । मैं सिर्फ देशभक्ति के उद्देश्य से आजाद हिंद फौज में भरती हुआ । मैं
इसलिए उसमें भरती हुआ, क्योंकि मैं अपनी
मातृभूमि को आजाद कराना चाहता था और उसके लिए अपना खून बहाने को तैयार था । मैंने
इस युद्ध में आजाद हिंद की अंतरिम सरकार की उन व्यवस्थित और नियमित युद्धरत सेनाओं
के सदस्य के तौर पर भाग लिया, जिन्होंने विदेशी शासन से अपनी मातृभूमि को आजाद कराने के
लिए, युद्ध के सभ्य
नियमों के अनुसार ही लड़ाई छेड़ी थी । मैं दावा करता हूं कि ऐसा करने से मैंने कोई
अपराध नहीं किया, बल्कि इसके
विपरीत मैंने अपनी पूरी सामर्थ्यानुसार अपने देश की सेवा की है । ”
लेफ्टिनेंट जी.एस. ढिल्लों ने भी उन पर मुकदमा चला सकने के
अदालत के न्यायाधिकार को चुनौती दी । उन्होंने भी आजाद हिंद फौज में शामिल होने के
कारणों की चर्चा की । उन्होंने कहा - "मैंने जो कुछ भी किया वह आजाद हिंद की
अंतरिम सरकार के नियमित युद्धरत सेना के सदस्य के तौर पर किया । अतः इस सेना के
सदस्य के रूप में अपना कर्तव्य निभाने के लिए मुझ पर इंडियन आर्मी एक्ट या भारत के
किसी आपराधिक कानून के तहत मुकदमा नहीं चलाया जा सकता । इतना ही नहीं, मुझे परामर्श दिया
गया है कि कानून की नजर में फौजी अदालत द्वारा मुझ पर मुकदमा चलाना गैरकानूनी है ।
"
हालांकि अदालत में जवाहरलाल नेहरू सहित 16 वकील मौजूद थे, बचाव का दायित्व भूलाभाई
देसाई ने लिया, जिनकी प्रतिभा
जिरह के दौरान उभर कर आयी । उन्होंने कहा- "प्रस्ताव यह है कि इस तथ्य को
देखते हुए कि आजाद हिंद की अंतरिम सरकार और ब्रिटिश सरकार के बीच युद्ध जारी था, उस युद्ध के
दौरान किये गये क्रियाकलाप वैसा महत्व नहीं रखते, जैसा कि एक व्यक्ति के मामले में साम्राज्य
दावा करता है, या कर सकता है ।
"अंतर्राष्ट्रीय
कानून के तहत यह स्वीकृत है कि किसी विदेशी सत्ता के अधीन व्यक्ति अपनी आजादी के
लिए एकजुट हों या एक संगठित सेना बनाएं, भले ही इस लड़ाई में वे कामयाब हों या नहीं । युद्ध के जारी
रहने की इस प्रक्रिया में संगठित सेना के व्यक्तिगत सदस्यों को युद्ध में अपने
क्रियाकलापों के लिए निरापदता प्राप्त है, उन युद्धजनित अपराधों को छोड़कर, जिनके लिए पूरे
विश्व में अब दंड का विधान है । इस तथ्य को देखते हुए मैं निवेदन करता हूं कि आपके
सामने उपस्थित अभियुक्तों को निरपराध घोषित किया जाना चाहिए, क्योंकि वे अपने
क्रियाकलापों के लिए कोई नागरिक या आपराधिक उत्तरदायित्व नहीं रखते हैं । अंतर्राष्ट्रीय
कानून की पुस्तक की भाषा के अनुसार इसका दायित्व उस राज्य पर है, जिसके निर्देशों
के तहत उन्होंने युद्ध किया और युद्ध स्थिति में ऐसा उत्तरदायित्व अंतर्राष्ट्रीय
कानून के तहत अस्तित्व नहीं रखता । निस्संदेह अगर विद्रोह सफल होता है, तो फिर वह एक नयी
सरकार बनाता है और यही उसका अंत है और अंतर्राष्ट्रीय कानून मेरे मुवक्किलों के
पक्ष में प्रत्युत्तर देता है । "
भूलाभाई देसाई सीधे मूल मुद्दे तक पहुंचे (विद्रोह करने के
प्रजा के अधिकार तक), जब उन्होंने कहा -
"एक भारतीय अपने आपको जिस स्थिति में पाता है, उसे देखते हुए सवाल यह उठता है कि किन हालात
में और किस सीमा तक राजभक्ति का प्रश्न उठाना जायज है, क्योंकि अगर
राज्य को सम्राट से विलग करके देखें, तो यह निर्णय करना किसी भी इंसान के लिए बिलकुल अलग ही
मुद्दा होगा और इसलिए मैं 17 फरवरी की घटनाओं
पर अपना तर्क आधारित करना चाहूंगा । "
ऐसे किसी मामले में एक भारतीय की स्थिति काफी मुश्किल है और
मैं अदालत के सामने इसका सही समाधान रखना चाहूंगा । जहां राजा और देश समान हो, वहां विकल्प का
प्रश्न ही नहीं उठता । अगर अपने राजा के विरुद्ध और अपने देश के हितों के खिलाफ युद्ध
किया जाये, तो यह प्रश्न ही
नहीं उठता । लेकिन अगर यह स्वाधीनता की लड़ाई हो, तो यह प्रश्न जरूर उठता है । मैं यह दिखाने के लिए कुछ
अनुच्छेद पढ़ना चाहूंगा कि मानवीय अधिकारों को स्वीकृति देने के मामले में विश्व
कितना आगे बढ़ गया है । अगर अपने देश को स्वाधीन कराने के लिए बाकायदा युद्ध किया
जा रहा हो, तो राजभक्ति का
सवाल ही क्यों उठाया जाये ? अपने देश को
स्वाधीन कराने के लिए युद्ध करते वक्त यह कैसे कहा जा सकता है कि आपकी किसी और के
प्रति स्वामिभक्ति भी है जो आपको यह युद्ध करने से रोकती है । शर्त बस इतनी सी है
कि आपने अपनी आत्मा ही बेच न दी हो और अगर ऐसा है, तो इसका मतलब अनंत दासता के अतिरिक्त कुछ नहीं
है । "
उन्होंने आगे कहा कि आधुनिक अंतर्राष्ट्रीय कानून ने पराधीन
देशों तथा जातियों के अपनी स्वाधीनता के लिए संघर्ष करने और एकजुट होने को मान्यता
दी है । इसलिए ऐसी संगठित सेना तथा उसके सदस्य अपने देश की स्वाधीनता के लिए किये
गये युद्ध के लिए किसी म्युनिसिपल अदालत के सामने जवाबदेह नहीं हैं ।
सरकारी अभियोक्ता ने आजाद हिंद की अंतरिम सरकार की स्थापना, उसके द्वारा सशस्त्र
सेना बनाने और अंग्रेजों के खिलाफ इस सेना को लड़ाई के मैदान में उतारने के प्रमाणस्वरूप
अनेक साक्ष्य प्रस्तुत किये थे । भूलाभाई देसाई ने इन्हीं तथ्यों के आधार पर यह
स्थापित करने का प्रयास किया कि राज्य का दर्जा प्राप्त ऐसी सरकार की संगठित सेना
की कार्यवाही के दौरान किये गये क्रियाकलापों पर अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के तहत
सवाल नहीं उठाया जा सकता,
जिसे जापानी
सरकार और दूसरे राज्यों द्वारा प्रदेश दिये गये हों, जिसे एक अन्य राज्य का पूर्णाधिकार प्राप्त हो और जिसने
ब्रिटेन और अमेरिका के विरुद्ध औपचारिक रूप से युद्ध छेड़ने की घोषणा की हो ।
भूलाभाई देसाई ने यह भी तर्क दिया कि युद्ध का अस्तित्व
पूर्णतः तथ्य पर आधारित एक प्रश्न है । अगर स्वाधीनता
संघर्ष के दौरान पराधीन जनता इस स्तर पर पहुंच जाती है, कि वह एक संगठित
सेना का रूप ले, तो युद्ध के
स्वीकृत नियमों के अनुसार उस सेना को वे सभी अधिकार, रियायतें और निरापदताएं मिलनी चाहिए, जो एक युद्धरत
देश को मिलती हैं । युद्ध स्थिति में युद्ध के दौरान किये गये सभी क्रियाकलाप
प्रतिरक्षित में होते हैं ।
आजाद हिंद फौज और उसके अफसरों की राजा के प्रति और आजाद
हिंद फौज से जुड़े देश के प्रति स्वामिभक्ति के सवाल के संबंध में एक और तर्क भी
दिया गया । कहा गया कि आजाद हिंद फौज का उद्देश्य अपने देश को आजाद कराना था, अपने देश की आजादी
के अतिरिक्त उसका कोई और उद्देश्य नहीं था । इसलिए सामान्यतः तथाकथित रूप से राजा
के खिलाफ लड़ने वाले ये सैनिक वास्तव में अपने देश की स्वाधीनता के लिए लड़ रहे थे
और राजा के प्रति कोई स्वामिभक्ति रखने को बाध्य नहीं थे ।
हत्या और यंत्रणा के अभियोग के हर मामले में भूलाभाई देसाई
ने अभियोग पक्ष द्वारा प्रस्तुत प्रमाणों का उत्कृष्ट विश्लेषण किया । उन्होंने
दावा किया कि ये प्रमाण इस मुकदमे में बिल्कुल अप्रासंगिक हैं क्योंकि जिस आधार पर
प्रमाण उपस्थित किये गये हैं, वह आधार ही अस्तित्व नहीं रखता । उन्होंने कहा कि हत्या के
अभियोग से संबंधित प्रमाण इसलिए खारिज हो जाते हैं, क्योंकि वे हत्याएं सेना की कार्यवाही का अंग
थीं और फौजी अदालत द्वारा उन लोगों को मृत्युदंड दिया जाना पूर्णतः न्यावसम्मत था ।
उन्होंने आगे कहा कि वह एक सुनियोजित सरकार थी और इस सरकार के प्रति निष्ठा रखने
वाले अनेकों भारतीय सुदूर पूर्व में विद्यमान थे और इस सरकार और उसके राज्य को
मान्यता प्राप्त थी । इस सरकार द्वारा युद्ध की बाकायदा घोषणा की गयी थी और आजाद
हिंद फौज ने यह युद्ध लड़ा था ।
अदालत की सुविधा के लिए जज एडवोकेट ने निष्पक्ष ढंग से पूरे
मुकदमे अर्थात अभियोग और बचाव, दोनों पक्षों के तर्कों का सार प्रस्तुत किया दावा किया गया
था कि सभी अभियोग साबित हो चुके हैं और अंतर्राष्ट्रीय कानून के युद्ध संबंधी नियम
उन अफसरों के संबंध में लागू नहीं होते जो भारतीय सेना के अफसर थे और राजा के
प्रति निष्ठावान थे । न्यायाधीश एडवोकेट के समाहार द्वारा कई कानूनी मुद्दे उभर कर
आये ।
अभियुक्तों पर इंडियन आर्मी एक्ट की धारा 11 के तहत आरोप
लगाया गया था । बचाव पक्ष ने निम्न तथ्यों को अंतिम रूप से साबित किया था :
आजाद हिंद फौज की अंतरिम सरकार औपचारिक रूप से स्थापित और उद्घोषित
की गयी थी |
यह एक सुनियोजित अथवा संगठित सरकार थी |
इस सरकार को ध्रुवीय शक्ति ने मान्यता प्रदान की थी । यह
मान्यता इस बात का प्रमाण है कि आजाद हिंद की सरकार को राज्य का दर्जा प्राप्त था |
इस राज्य के पास एक संगठित सेना थी, जिसमें नियमित
रूप में भारतीय अफसरों की नियुक्ति की गयी थी |
आजाद हिंद फौज की स्थापना का मुख्य उद्देश्य भारत को आजाद
कराना और इसके साथ बर्मा और मलाया के भारतीय निवासियों को युद्ध के दौरान खासतौर
पर मुक्त कराना था |
इस नये भारतीय राज्य ने अन्य किसी देश की भांति प्रदेश
अधिगृहीत किया था और अंततः इस राज्य के पास युद्ध लड़ने के लिए पर्याप्त साधन
मौजूद थे ।
इन तथ्यों के आधार पर बचाव पक्ष ने यह दावा किया था कि उन
स्थितियों को देखते हुए, जिनके तहत यह
अंतरिम सरकार बनायी गयी थी और कार्यरत थी, उसे अपने देश की आजादी के लिए युद्ध करने का अधिकार था, जो उसने किया । अगर
ऐसी सरकार को युद्ध करने का अधिकार है, एक ऐसा अधिकार जो सभी देशों को मान्य और स्वीकार्य है, तो
अंतर्राष्ट्रीय कानून के तहत दो स्वाधीन देश या दो राज्य एक दूसरे पर युद्ध छेड़ सकते
हैं और इस युद्ध की कार्यवाही से संबंधित क्रियाकलाप करने वाले व्यक्ति, युद्ध अपराधियों
को छोड़कर, म्युनिसिपल कानून
के घेरे के अंदर नहीं आते ।
बचाव पक्ष ने तर्क दिया था कि आधुनिक अंतर्राष्ट्रीय कानून
ने पराधीन देशों जातियों के एकजुट होकर, संगठित सेना बनाकर अपनी स्वाधीनता के लिए लड़ने के अधिकार को
मान्यता दी है । इस संगठित सेना के सदस्य युद्ध में अपने कार्यों के लिए किसी म्युनिसिपल
अदालत के सामने जवाबदेह नहीं हैं ।
जहां तक तथ्यों का सवाल था, बचावपक्ष ने यह भी साबित किया था कि आजाद हिंद
फौज एक मान्यता प्राप्त सुनियोजित सरकार की संगठित सेना थी, जिसने अंग्रेजों
और अमेरिका पर युद्ध छेड़ने की घोषणा की थी और इस युद्ध के तहत अंग्रेजों से लड़ाई
की थी ।
बचाव पक्ष ने यह भी साबित किया था कि वे कार्य, जो आरोपों का
आधार थे, एक ऐसी सरकार की
संगठित सेना की कार्यवाही के दौरान किये गये थे, जो राज्य का दर्जा पाने का दावा रखती थी, जो जापानियों
द्वारा प्रदत्त प्रदेशों पर अधिकार रखती थी, जो दूसरे देशों द्वारा मान्यताप्राप्त थी, जो अन्य राज्य का
पूर्णाधिकार रखती थी और जिसने अमेरिका और अंग्रेजों के खिलाफ बाकायदा युद्ध छेड़ने
की घोषणा की थी ।
इस तरह उस महान आई.एन.ए. मुकदमे का अंत हुआ जिसने पूरे भारत
में पूर्ण स्वाधीनता की एक नयी जागृति फैला दी थी । यह कहा जा सकता है कि मुकदमा काफी
निष्पक्ष ढंग से चलाया गया था और यह ब्रिटिश राज का उपयुक्त समापन साबित हुआ । इसने
ब्रिटिश न्याय की निष्पक्षता को भी साबित किया । यह मुकदमा ऐसी जगह चलाया गया था, जो सबके लिए
सुविधापूर्ण थी । लाल किला सेना का मुख्यालय होने के कारण ब्रिटिश राज के लिए तो
सुविधाजनक था ही, वह भारत के हर
नेता और वकील के लिए भी उतना ही सुविधापूर्ण था । मुकदमा ऐसे समय में चलाया गया था, जब भारत में अधिकांश
लोगों की राय उसके खिलाफ थी । यहां तक कि पश्चिमोत्तर सीमांत प्रदेश के गवर्नर सर
जार्ज कनिंघम ने विशेष तौर पर वायसराय लार्ड वेवल को पत्र लिखकर परामर्श दिया कि
कमांडर इन चीफ फौरन इस मुकदमे को वापिस लेने की घोषणा करें, क्योंकि भारतीय
जनमत इसके विरुद्ध है ।
बहरहाल मुकदमा चलाया गया । इस मुकदमे ने भारतीयों में
राष्ट्रीय चेतना जगाने का अच्छा काम किया । दूसरी तरफ ब्रिटिश साम्राज्य को उसने
काफी हानि पहुंचाई । तीनों अफसरों की सजा को वापिस लेकर कमांडर इन चीफ ने स्थिति को
बिगड़ने से बचा लिया । अगर प्रबत्त जनमत के विरुद्ध जाकर इन अफसरों को यह दंड दे
दिया गया होता, तो पूरे भारत में
उसी समय अव्यवस्था फैल गयी होती ।
भारत के प्रमुख ज्यूरिस्ट श्री एम.सी. स्टेलवाड ने आजाद
हिंद फौज मुकदमे की प्रस्तावना में उसके प्रभावों और कमियों तथा भूलाभाई देसाई की
न्यायिक योग्यताओं की चर्चा करते हुए लिखा है :
"पहला आजाद हिंद
फौज मुकदमा ब्रिटिश भारत के इतिहास में संभवतः सर्वाधिक महत्वपूर्ण मुकदमा है । कुछ
मायनों में, अवश्य ही वह
इतिहास का सर्वाधिक महत्वपूर्ण मुकदमा है ।"
उसके दो पक्ष थे । वह अंतर्राष्ट्रीय कानून के पूर्णतः नवीन
और कुछ मायनों में दूरगामी प्रस्तावों पर बहस का अवसर था और वकीलों और कानून में
दिलचस्पी रखने वाले अन्य लोगों के लिए चिरस्थायी अभिरुचि का विषय था । आम आदमी के
लिए वह एक आकर्षक और प्रेरणादायक कहानी थी - भारत के इतिहास के सबसे प्रसिद्ध महान
देशभक्त द्वारा अपने हजारों-लाखों देशवासियों के सहयोग से अपने देश को आजाद कराने
के ओजस्वी प्रयास की आकर्षक और प्रेरणादायक कहानी ।
यह दुख की बात है कि अंतर्राष्ट्रीय कानून से संबंधित इतने
दूरगामी और जटिल न्यायिक प्रश्न एक ऐसे ट्रिब्यूनल के सामने उठाये गये, जिसमें न्याय के
विधिवेत्ता मौजूद नहीं थे और मुकदमा ऐसे लोगों की अध्यक्षता में चलाया गया था जो
न्याय प्रदान करने के ढंग से काफी अनभिज्ञ थे ।
श्री देसाई द्वारा इतने जटिल प्रश्नों के इतने द्रक्ष
संचालन की श्री स्टेलवाड ने काफी प्रशंसा की । उन्होंने कहा - “यह तथ्य
ट्रिब्यूनल के सामने बचाव पक्ष द्वारा दिये गये तर्क की महत्ता और श्रेष्ठता के
प्रति हमारी श्रद्धा को बढ़ाता ही है । इस तरह के ट्रिब्यूनल से व्यवहार करना बचाव
पक्ष के वकील के लिए और भी मुश्किल काम था । उसे अंतर्राष्ट्रीय कानून के जटिल प्रश्नों की
व्याख्या ऐसी सरल भाषा में करनी थी कि उसके सामने बैठे न्यायाधीश- युद्ध के जानकार
और सामान्य ज्ञान रखने वाले व्यक्ति-भली-भांति समझ सकें । इस उद्देश्य से श्री
देसाई ने अपनी तीक्ष्ण बुद्धि और आकर्षक वाकपटुता का इस्तेमाल किया । उनके
बचाव-भाषण को पढ़ने वाला कोई भी व्यक्ति एक प्रबुद्ध और महान वकील के समुचित
प्रयास से अपरिचित नहीं रह सकता ।“
भारतीय देशभक्तों पर ब्रिटिश सरकार द्वारा चलाया गया यह अंतिम मुकदमा था । बहादुरशाह का पहला मुकदमा जहां ब्रिटिश अन्याय का उदाहरण था, वहीं यह अंतिम मुकदमा न्याय और निष्पक्षता का परिचायक था ।
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