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एम एन राय की गिरफ्तारी | एम एन राय का मुकदमा | M N Roy Cases

एम एन राय की गिरफ्तारी | एम एन राय का मुकदमा | M N Roy Cases भारत में कम्युनिस्ट पार्टी और ट्रेड यूनियन आंदोलन को दबाने के लिए ब्रिटिश ...

एम एन राय की गिरफ्तारी | एम एन राय का मुकदमा | M N Roy Cases



भारत में कम्युनिस्ट पार्टी और ट्रेड यूनियन आंदोलन को दबाने के लिए ब्रिटिश शासकों ने पहला संगठित आक्रमण ' कानपुर षड्यंत्र कांड ' मुकदमे द्वारा किया था, जिसमें एन. बी. दासगुप्ता, एम.एस. उस्मानी, एम. अहमद और एस.ए. डांगे पर मुकदमा चलाया गया था, और 20 मई 1921 को उन्हें चार साल के सश्रम कारावास का सुनाया गया था ।

 

इस मुकदमे के मुख्य अभियुक्त एम. एन. राय को उस समय भारत से बाहर होने के कारण अभिशंसित और दंडित न किया जा सका था । उनका मुकदमा अस्थगित रखा गया था ।

 

10 मई 1924 को, अर्थात् सेशन अदालत में कानपुर मुकदमे की बहस खत्म होने के बाद और निर्णय सुनाए जाने से पहले, सरकारी अभियोक्ता लेफ्टिनेंट कर्नल सिसिल केव ने जिला मैजिस्ट्रेट से एम. एन. राय की गिरफ्तारी के वारंट जारी करने का अनुरोध किया था । यह वारंट जारी कर सिसिल केय को दे दिया गया था । ऐसा मान लिया गया था कि इसे कार्यवाही के लिए इंग्लैंड भेजा जायेगा, क्योंकि स्कॉटलैंड यार्ड की सूचनानुसार राय के इंग्लैंड और यूरोप पहुचने की संभावना थी ।

 

एम. एन. राय दिसंबर 1930 में चोरी-छिपे भारत पहुंचे । राय के बंबई पहुंचने पर ब्रिटिश अधिकारियों ने उन्हें गिरफ्तार करने के प्रयास किए, क्योंकि, जैसा कि एक गुप्तचर अधिकारी ने बाद में राय को बताया था, "उन्हें एकमात्र ऐसा व्यक्ति समझा जाता था, जो भारत में साम्यवाद को वास्तविक खतरा बना सकता था ।" इस दौरान भारत की कम्युनिस्ट गतिविधियों की समीक्षा करने वाली एक खुफिया रिपोर्ट में स्वीकार किया गया था कि "पुलिस के बुरी तरह पीछे पड़ी होने के बावजूद, राय यथेष्ट हानि पहुंचाने में सफल हुए थे ।" अपने पास के सात महीनों के भीतर राय ने देश भर में अपने सिद्धांतों के कई समर्थक, यहां तक कि कई कांग्रेसी भी जुटा लिये थे । रिपोर्ट में आगे कहा गया था कि, "यथार्थवादी राय दूसरे सभी भारतीय कम्युनिस्ट नेताओं में, डा. जी.एस. अधिकारी के संभावित अपवाद को छोड़कर, सबसे कहीं ऊपर दिखाई देते हैं । खतरनाक उग्र वामपंथी नीतियों से परहेज करने के उनके उपदेशों ने अंततः भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की कट्टर नीतियों के मुकाबले साम्यवाद के कहीं ज्यादा मतावलंबी बनाये । ऐसा महसूस किया गया कि उन्हें बंदी बनाकर पूंजीवाद, सामंतवाद और साम्राज्यवाद के एक खतरनाक दुश्मन को राजनीतिक रणभूमि से हटाया जा सकता था और भारतीय साम्यवाद को कठोर आघात पहुंचाया जा सकता था ।"

 

शायद ही भारतीय पुलिस ने किसी व्यक्ति को पकड़ने में इतनी मेहनत की होगी, जितनी राय के मामले में की । उनके भारत आने के कुछ ही दिनों के अंदर ब्रिटिश अधिकारियों को उनकी उपस्थिति का संदेह हो गया था ।  पुलिस के कृतसंकल्प प्रयत्नों के बावजूद राय कई महीनों तक उन्हें चकमा देने और अपने उद्देश्य प्राप्ति के लिए प्रशंसनीय प्रगति कर पाने में सफल हुए । एक समकालीन प्रेस रिपोर्ट में कहा गया है कि कई मौकों पर वह गिरफ्तारी से बाल-बाल बचे, "अपनी आश्चर्यजनक चालाकी के बिना भारत आने के एक हफ्ते के अंदर ही वह हवालात में होते।आखिरकार, 21 जुलाई 1931 को उन्हें बंबई में गिरफ्तार कर लिया गया ।

 

कानपुर षड्यंत्र कांड के सिलसिले में 1924 में जारी किये गये वारंट के आधार पर मुकदमा चलाये जाने के लिए राय को कानपुर भेजा गया । मुकदमे के लिए कानपुर का चुनाव पहले से इसलिए किया गया था, जिससे जूरी और जुलूसों से बचा जा सके । उन्हें पहले मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया, जिसने उन्हें सेशन अदालत के सुपुर्द कर दिया । आरोप-पत्र लेफ्टिनेंट कर्नल सिसिल केय ने तैयार किया था, जो ब्रिटिश गुप्तचर सेवा के बोल्शेविक विरोधी विभाग के अध्यक्ष थे । मुकदमे के आरंभ में मुख्य अभियोक्ता श्री रोज एलस्टन ने अदालत को राय के खिलाफ अभियोग पढ़ कर सुनाये लगाये गये

आरोप यूं थे :

(1) यूरोप में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल नामक एक क्रांतिकारी संगठन अस्तित्व रखता है;

(2) उक्त संगठन के एक अंग-थर्ड कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की 'कार्यकारिणी समिति' के नाम से कार्यरत का उद्देश्य पूर्वी देशों में सम्बद्ध संगठनों की स्थापना है;

(3) 1921 के दौरान, उक्त अंग ने ब्रिटिश भारत में ऐसे ही सम्बद्ध संगठन की स्थापना करने का निश्चय किया था, जिसका अध्यक्ष एक ऐसे व्यक्ति को बनाया जाना था, जो खुद को मानवेन्द्र नाथ राय (एम.एन. राय) कहता था, और जो, ऐसा माना जाता है, उस वक्त बर्लिन में रहता था;

(4) उक्त सम्बद्ध संगठनों की स्थापना का एक उद्देश्य महामहिम सम्राट को ब्रिटिश भारत के आधिपत्य से वंचित करना था ।

(5) उक्त उद्देश्य के निष्पादन के लिए, उक्त मानवेन्द्र नाथ राय और वोषित अभियुक्त, जो ब्रिटिश भारत के बाहर अनेक स्थानों पर रहते थे, एक-दूसरे से और अन्य व्यक्तियों से पत्र व्यवहार करते थे और पूरे भारत में उक्त उद्देश्य से उक्त संबद्ध संगठन स्थापित करने का षड्यंत्र करते थे, जिससे कि महामहिम सम्राट को ब्रिटिश भारत के आधिपत्य से वंचित किया जा सके ।

 

(6) उक्त उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उपर्युक्त घोषित अभियुक्त के नेतृत्व में 'एसोसिएशन आफ वर्कर्स एंड पीसेंट्स' या एक 'पीपल्स पार्टी' बनाने का निश्चय किया गया था ।

(7) उक्त संघ को उक्त क्रांतिकारी संगठन, अर्थात् कम्युनिस्ट इंटरनेशनल का निर्देश और समर्थन प्राप्त होना था, जिससे उसका इस्तेमाल हिंसक क्रांति के द्वारा भारत को साम्राज्यवादी ब्रिटेन से अलग करने में किया जा सके और इस तरह महामहिम सम्राट को ब्रिटिश भारत के आधिपत्य से वंचित किया जा सके ।

 

(8) उक्त उद्देश्य की प्राप्ति के लिए मजदूरों और किसानों के संघ और पीपल्स पार्टी का अंतिम सहयोग पाने के लिए एक ऐसा आर्थिक कार्यक्रम बनाया जाना था, जो किसानों और मजदूरों दोनों को आकृष्ट करे, और जिससे उक्त मानवेन्द्र नाथ राय द्वारा घोषित एक ऐसा संगठन बनाया जा सके, जिसके कानूनी और गैरकानूनी दोनों उद्देश्य हों ।

(9) उक्त उद्देश्य की प्राप्ति के और तरीके खोजने के लिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का नेतृत्व हथियाने का प्रयास किया गया था ।

 

(10) उक्त उद्देश्य की प्राप्ति के और तरीके खोजने के लिए उक्त मानवेन्द्र नाथ राय तथा अभियुक्त ने अन्य व्यक्तियों के साथ मिलकर ब्रिटिश भारत में क्रांतिकारी चरित्र के समाचारपत्रों, पर्चो और परिपत्रों का प्रचार-प्रसार किया था।

 

सिसिल केय ने इस बात को जोर देकर कहा कि एम.एन. राय और अन्य कम्युनिस्टों पर सख्त कार्यवाही की जानी चाहिए । उन्होंने कहा- "भारत में एक अकेले कारक के रूप में भी कम्युनिस्ट आंदोलन के तात्कालिक और संभावित खतरे काफी स्पष्ट हैं । एक तरफ, पुराने बंगाली क्रांतिकारियों के साथ संवाद बनाया गया है, जिनमें से अधिकांश एम.एन. राय के व्यक्तिगत मित्र हैं और जो असहयोग आंदोलन की असफलता के बाद से अपनी पुरानी गतिविधियों की तरफ पुनः अग्रसर हो रहे हैं । दूसरी तरफ सी.आर. दास और कांग्रेस के उग्र वाम पक्ष ने प्रत्यक्ष कार्यवाही' के लिए 'सर्वहारा को संगठित करने के अपने इरादे को छुपाया नहीं है । इन दो दलों के बीच राय के कम्युनिस्ट एक खतरनाक सुविधाजनक और व्यावहारिक जगह संभाते हैं । “

 

मई 1924 में कानपुर के सेशन न्यायाधीश ने चार अभियुक्तों, डांगे, उस्तानी, एम. बी. दासगुप्ता और मजफ्फर अहमद, को चार साल के सश्रम कारावास का दंड दिया था, जबकि एम.एन. राय के खिलाफ अभियोगों को स्थगित रखा गया था । राय उस समय गिरफ्तार नहीं किये जा सके थे, लेकिन वह अभियुक्तों से निरंतर संपर्क बनाये रहे । वह चाहते थे कि कानपुर मुकदमे के अभियुक्त अदालत की कार्यवाही का इस्तेमाल कम्युनिज्म के सिद्धांतों के प्रचार-प्रसार और भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के तात्कालिक कार्यक्रम के बताने में करें, जिससे उसका खूब प्रचार हो सके । लेकिन अभियुक्तों ने, दुर्भाग्य से अपने परामर्शदाताओं की सलाह से संकुचित वैधानिक रास्ता अपनाया और यह सुनहरा मौका गंवा दिया । बाद में, मेरठ षड्यंत्र मुकदमे में इस गलती का भली-भांति संशोधन किया गया था । एम. एन. राय इससे काफी हताश हो गये थे और नवंबर 1924 में अपने मित्र को एक पत्र में उन्होंने लिखा था :

"बेचारे ! अगर उन्होंने एक बेहतर बचाव प्रस्तुत किया होता, तो यह चार साल की जेल सार्थक हो जाती ।"

 

एम.एन. राय को 15 अक्तूबर 1931 को मजिस्ट्रेट द्वारा सेशन अदालत के सुपुर्द किया गया था । कई स्थगनों के बाद सेशन अदालत में उनका मुकदमा 3 नवंबर 1931 को शुरू हुआ । यह मुकदमा सामान्य प्रथा के अनुसार खुली अदालत में नहीं चला । वह एक बंद जेल के भीतर चलाया गया था । ऐसा लगता है कि सरकार कोई लोकप्रिय जुलूस नहीं निकलने देना चाहती थी । राय ने जेल की दीवारों के भीतर बैठी अदालत के सामने उपस्थित होने से इंकार किया, लेकिन उन्हें जबर्दस्ती वहां लाया गया । उन्होंने जूरी द्वारा मुकदमा चलाये जाने की मांग की यह अर्जी नामंजूर कर दी गयी और निर्धारकों की मदद से उन पर मुकदमा चलाया गया । मुकदमे की समाप्ति पर चार निर्धारकों में से दो ने उन्हें 'निर्दोष' पाया, लेकिन यह बात भी सेशन न्यायाधीश को उन्हें अभिशंसित करने और एक क्रूर दंड देने से नहीं रोक पायी ।

 

राय के विरुद्ध प्रमाणों में वे पत्र थे, जो राय द्वारा अपने भारतीय सहयोगियों, या सहयोगियों द्वारा उन्हें लिखे गये थे । इन चिट्ठियों को या तो बीच में पकड़ा गया था, रोका गया था, या फिर राय के सहयोगियों को गिरफ्तार करते वक्त उनके पास से जब्त किया गया था ।

 

सेशन मुकदमे के दौरान राय अपनी सफाई में एक लंबा बयान देना चाहते थे, लेकिन उन्हें इसकी इजाजत नहीं दी गयी । बाद में इस बयान को चुपके से जेल से बाहर लाया गया और 'माई डिफेंस' शीर्षक के तहत प्रकाशित किया गया । यह एक असाधारण न्यायिक दस्तावेज है जो न्यायिक इतिहास में अपनी अलग जगह रखता है । यह एम.एन. राय के विस्तृत ज्ञान, समझदारी और परिश्रम का पर्याप्त प्रमाण देता है । सबसे पहले षड्यंत्र के प्रश्न को उठाते हुए उन्होंने तर्क दिया कि रिकार्ड पर दर्ज साक्ष्य षड्यंत्र को साबित नहीं करते, क्योंकि प्रस्तुत दस्तावेज तथाकथित षड्यंत्रकारियों के बीच मतभेद को दिखाते हैं, कोई अपराध करने के समझौते को नहीं । उन्होंने फिर भारतीय दंड संहिता की धारा 121-ए के अंतर्गत महामहिम सम्राट की भारत के आधिपत्य से वंचित करने के षड्यंत्र के सिलसिले मे एक निवेदन किया और उसकी वैधता और संवैधानिकता को चुनौती दी । उन्होंने कहा कि भारत की ब्रिटिश सरकार 'निरकुशता और दमन की मशीन' है और 'भारत की जनता 'ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति कोई राजभक्ति रखने को प्रतिबद्ध नहीं है और उसे विद्रोह करने का अधिकार हैं । उन्होंने अपने तर्क को लॉक, ह्यूम, बैन्धम, बेगहोट, डाइसी और ऐसे अन्य राजनीतिक दार्शनिकों और न्याय विशेषज्ञों के उद्धरणों से पुष्ट किया, जिन्होंने भारत के ब्रिटिश आधिपत्य की वैधानिकता पर लिखा था ।

बड़े दुख की बात है कि उन्हें अदालत में अपना बचावनामा पढ़ने की अनुमति नहीं दी गयी । अगर अनुमति मिली होती तो उसे विस्तृत प्रचार मिला होता और विश्वभर के लोगों का ध्यान उसके प्रति आकृष्ट होता । उनका संदेश भविष्यसूचक था ।

 

मुकदमा 6 जनवरी 1932 को समाप्त हुआ और निर्णय 9 जनवरी 1932 को सुनाया गया । राय को 12 साल के निर्वासन का दंड सुनाया गया । इतनी कड़ी सजा सिर्फ राय के लिए ही नहीं, बल्कि सभी के लिए आकस्मिक और अनापेक्षित थी । फौरन उच्च न्यायालय, और जरूरी हो तो, प्रिवी काउंसिल में अपील करने की योजना बनाई गयी ।

 

चूंकि ब्रजेश सिंह के सिवा, राय के सभी दोस्त देश के दूसरे हिस्सों में रहते थे, इसलिए उन्हें ही अपील की व्यवस्था करने का पूरा उत्तरदायित्व दिया गया, लेकिन दुभाग्य से, अपील की सुनवाई से कुछ महीने पहले ही ब्रजेश सिंह ने राय के सिद्धांतों का परित्याग कर दिया और रूढ़िवादी साम्यवाद को अपना लिया । 1932 के अंत में वह यूरोप लौट गये । उनके आकस्मिक प्रस्थान से राय अपनी अपील की सुनवाई के लिए पूरी तैयारी न कर सके ।

 

पूरे मुकदमे के उन कागजातों को व्यवस्थित करना ही मुश्किल काम था, जो ब्रजेश सिंह की देखरेख में थे । राय के सच्चे समर्थकों में से अधिकांश लोग तथा कई वामपंथी नेशनलिस्ट जो उनके समर्थन में आगे आये थे, इस वक्त जेल में थे ।

 

2 मई 1988 को न्यायाधीश थॉमस द्वारा अपील को सुना गया और उस पर निर्णय दिया गया ।  अपील पर युवा और योग्य वकील डा. के.एन. काटजू ने डी. सान्याल के सहयोग से अच्छी बहस की, जबकि साम्राज्य की तरफ से सरकारी वकील उपस्थित हुए । सरकारी अभियोक्ता ने कहा कि अपीलकर्ता पर यह अभियोग भारत में मौजूद दूसरे लोगों के साथ मिलकर लगाया गया था और 1921 से लेकर 1924 तक, अपीलकर्ता ने, जो यूरोप में था, भारत में कम्युनिज्म के सिद्धांत फैलाने का प्रयास आरंभ करने का संकल्प किया था ।

 

षड्यंत्रकारियों का अंतिम उद्देश्य भारत में एक कम्युनिस्ट सरकार की स्थापना था – एक ऐसी सरकार, जिस पर मजदूरों और किसानों का नियंत्रण होगा । ऐसी कम्युनिस्ट सरकार की स्थापना से पहले भारत के मौजूदा संविधान तथा महामहिम सम्राट की प्रभुसत्ता का विनाश किया जाना था ।

 

उच्च न्यायालय के विद्वान न्यायाधीश ने उन प्रमाणों की चर्चा की, जिन पर दंड आधारित था जो अधिकांशतः दस्तावेज थे । ये प्रमाण यूं थे

(क) एम. एन. राय द्वारा अपने भारतीय सहयोगियों को लिखे गये और उनके द्वारा राय को लिखे गये पत्र । ये असली पत्र थे, जिन्हें या तो बीच में पकड़ा गया था, रोका गया था, या राय तथा उनके सहयोगियों को गिरफ्तार करते वक्त, उनके पास से जब्त किया गया था ।

 

(ख) उन पत्रों की प्रतिलिपियां, जो बीच में पकड़े गये या जिनकी नकल, तस्वीर उतारी गयी या जिन्हें दोबारा भेजा गया ।

(ग) पर्चे, इश्तहार या दूसरी प्रकाशित सामग्री, जिन्हें पत्रों के साथ पकड़ा गया, या दूसरे स्रोतों से हासिल किया गया ।

 

न्यायाधीश ने कहा :

"विद्वान वकील डा. के.एन. काटजू द्वारा अपील में कई वैधानिक प्राविधिक आपत्तियां उठाई गयी थीं । यह तर्क दिया गया था, कि कानपुर की सेशन अदालत को राय पर मुकदमा चलाने का न्यायाधिकार नहीं था, कि उन्हें कानूनतः गिरफ्तार नहीं किया गया था, क्योंकि भारतीय दंड संहिता की धारा 121-ए के अंतर्गत कोई समुचित और कानूनतः नियमित अभियोग नहीं लगाये गये थे, कि उन्हें अप्रासंगिक और अयोग्य प्रमाणों के आधार पर दंडित किया गया था । " इन तक पर पूरी तरह विचार करने के उपरांत न्यायाधीश ने यह निर्णय दिया :

 

(1) कानपुर को सेशन अदालत को अपीलकर्ता पर मुकदमा चलाने का न्यायाधिकार था ।

(2) उसे कानूनतः गिरफ्तार किया गया था और भारतीय दंड संहिता की धारा 121-ए के अंतर्गत, उस पर समुचित और नियमित अभियोग लगाये गये थे ।

(3) उसे प्रासंगिक और उचित प्रमाणों के आधार पर दंड दिया गया था ।

 

उन्होंने आगे कहा कि अभियोग पक्ष द्वारा प्रस्तुत पत्र-व्यवहार और दूसरे दस्तावेज निस्सदेह यह साबित करते थे

(1) अपीलकर्ता ( एम. एन. राय) और उनके सहयोगियों का इरादा हिंसक तरीकों से भारत सरकार को हटाना और एक कम्युनिस्ट राज्य की स्थापना करना था ।

(2) इस उद्देश्य को सामने रखकर, अपीलकर्ता ने भारत और यूरोप में कई विचार-गोष्ठियां आयोजित कीं, जिनमें उनके सहयोगियों ने भाग लिया ।

(3) उनका इरादा दो दल बनाने का था, एक कानूनी दल जिसे 'पीपुल्स पार्टी' कहा जाना था, और दूसरा गैर-कानूनी गुप्त दल, जिसमें केवल प्रतिबद्ध कम्युनिस्ट ही प्रवेश पा सकते थे । यह दल इस 'पीपुल्स पार्टी' का ही अंग था, जिसे जनता में असंतोष और विरोध भड़काने या क्रांति और विद्रोह के बीज बोने के माध्यम के रूप में इस्तेमाल किया जाना था ।

(4) अपीलकर्ता उन प्रतिनिधियों के लिए कुछ निश्चित रकम भी जुटाता था, जिन्हें यूरोप में विचार गोष्ठी में भाग लेने को बुलाया जाता था । ;

(5) बेहतर आर्थिक परिस्थितियों की आशा जगाकर अपीलकर्ता और उनके सहयोगी मजदूरों और किसानों का समर्थन प्राप्त करना चाहते थे और व्यक्तिगत तौर पर देशद्रोही साहित्य और प्रचार सामग्री का प्रसार कर जनता को मौजूदा सरकार के खिलाफ भड़काना चाहते थे और सभी उग्रवादी, आतंकवादी और क्रांतिकारी तत्वों को जोड़कर वे भारत सरकार को हिंसापूर्ण तरीकों से हटाना चाहते थे ।

 

न्यायाधीश ने आगे कहा :

"अपीलकर्ता के वकील डा. काटजू ने तर्क दिया है कि अपीतकर्ता को अतिवादी दृष्टिकोण रखने के लिए दंडित नहीं किया जाना चाहिए । ऐसा करने का सुझाव कभी नहीं दिया गया । कानून किसी व्यक्ति को दृष्टिकोण बनाने से, ये कितने ही अतिवादी क्यों न हों, मना नहीं करता । अगर अपीलकर्ता अपने विचारों की मजबूती जानने के सैद्धांतिक विचार-विमर्श तक खुद को सीमित रखता, तो उसका कोई अपराध नहीं होता; लेकिन उसके पत्र और पर्चे विद्वतापूर्ण सैद्धांतिक विवेचन मात्र नहीं हैं । यह स्पष्ट है कि अपीलकर्ता आर्थिक विश्लेषण के क्षेत्र से निकलकर राजनीतिक क्रियाकलाप के क्षेत्र में आ गया था । सेशन अदालत के सामने अपने बयान में अपीलकर्ता ने ह्यूम और बेंयम के सिद्धांतों का सहारा लिया था और यह दावा किया था कि वे इस बात के प्रमाण हैं कि हिंसा के माध्यम से एक सरकार को हटाने का प्रयास करना स्वीकृत है । ह्यूम और बेंथम की रचनाएं मौजूदा मामले में बिलकुल अप्रासंगिक हैं, फिर सैद्धांतिक मामलों में इन दार्शनिकों की राय कितनी ही महत्वपूर्ण क्यों न हो । 'सैद्धांतिक विवेचन की मंजिल से आगे जाने का निर्णय करने के बाद यह जरूरी था कि अपीलकर्ता न सिर्फ राजनीतिक चिंतकों के आकर्षक सिद्धांतों का सम्मान करता, बल्कि उसके साथ उसे भारतीय संहिता की धाराओं और तथ्यों के सांसारिक मसलों का भी ध्यान रखना चाहिए था ।

 

तमाम साक्ष्यों पर विचार करने के बाद न्यायाधीश ने यह निर्णय दिया कि भारतीय दंड संहिता की धारा 121-ए के अंतर्गत एम.एन. राय को उक्त आरोपों का दोषी पाया गया है, लेकिन फिर भी उनकी सजा घटाकर 6 साल के सश्रम कारावास में बदल दी गयी ।

 

1991 में गिरफ्तारी के बाद से एम. एन. राय को जेल में ही रखा गया था । जेल में वह काफी अस्वस्थ रहे थे और एक तरह से एकांत कारावास ही झेल रहे थे । 2 मई 1938 को अपील के निर्णय होने तक उनके अधिकांश मित्र उनका साथ छोड़ चुके थे । उन्हें प्रिवी काउंसिल में आगे अपील करने की तैयारी खुद करनी पड़ी । उन्हें मुक्त कराने के सभी प्रयास किये गये और उनके कागजात जर्मनी में डा. रोसेनफील्ड को भेजे गये, जिन्हें लंदन में किसी बैरिस्टर की सेवाएं प्राप्त करनी थीं ।

 

सर स्टेफोर्ड क्रिप्स प्रिवी काउंसिल में अपील दाखिल करने के लिए कागजात देखने को सहमत हो गये । उन्होंने यह राय दी कि प्रिवी काउंसिल में किसी राहत की उम्मीद करना व्यर्थ होगा । उन्होंने कहा कि प्रिवी काउंसिल का प्रतिकूल निर्णय न केवल उनके मामले को अधिक हानि पहुंचा सकता है, बल्कि इंग्लैंड में भी एक हानिकर पूर्वोदाहरण बना सकता है । बहरहाल, राय का मानना था कि जहां तक भारत का सवाल है, प्रिवी काउंसिल के प्रतिकूल निर्णय से स्थिति में कोई बदलाव नहीं आयेगा, जबकि एक अनुकूल निर्णय काफी लाभदायक होगा । उनकी राय में "अंग्रेजों को संभव आधार देना काफी दूरगामी संभावना है, इतनी दूरवर्ती कि एक अनुकूल निर्णय के तात्कालिक फायदों को निष्प्रभाव नहीं कर सकती।" हालांकि राय ने अपनी राय व्यक्त करने के लिए कई पत्र लिखे, लेकिन उन्होंने यह निर्णय लेने की जिम्मेदारी इंग्लैंड के वकीलों को सौंप दी । दुर्भाग्य से, कई कारणों से काफी देरी होती गयी और इस बीच निर्णय की प्रमाणित प्रतिलिपि समेत अपील के कागजात खो गये तथा प्रिवी काउंसिल में कोई अपील दाखिल नहीं की जा सकी ।

इस तरह यह मुकदमा इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय के साथ ही खत्म हो गया । इस तरह उस मुकदमे का अंत हुआ जो एन.बी. दासगुप्ता, एम.एस. उस्मानी, एम. अहमद और एस. ए. डांगे की गिरफ्तारी के साथ शुरू हुआ था ।

 

इस बारे में दो राय नहीं हो सकती कि अंग्रेज शासकों ने हर संगठित आंदोलन को, चाहे वह वामपंथी रहा हो या राष्ट्रीयतावादी, कुचलने का हर संभव प्रयास किया, क्योंकि वह उनके पूंजीवादी हितों के लिए खतरा था ।

 

राय एक अंतर्राष्ट्रीय व्यक्तित्व थे, एक जाने-माने क्रांतिकारी थे । उनका बचावनामा ड्राइफ्स केस में एमिल जोला के बचावनामे की तरह ही प्रख्यात हुआ होता । उनके तर्कों और शोध को कालान्तर में आई.एन.ए. और शेख अब्दुल्ला के मुकदमों में इस्तेमाल किया गया ।

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