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श्री अरविंद घोष का मुकदमा | श्री अरविंद घोष और अन्य साथियों का मुकदमा | Sri Aurobindo Case

  श्री अरविंद घोष का मुकदमा | श्री अरविंद घोष और अन्य साथियों का मुकदमा | Sri Aurobindo 's Case (1908-1909) अलीपुर बम कांड ऐतिह...

 श्री अरविंद घोष का मुकदमा | श्री अरविंद घोष और अन्य साथियों का मुकदमा | Sri Aurobindo 's Case

(1908-1909)




अलीपुर बम कांड ऐतिहासिक महत्व के राज्य-मुकदमों में से एक है, क्योंकि वह ऐसे समय में हुआ था, जब बंगाल में असंतोष अपनी पराकाष्ठा पर था । यह मुकदमा उन सुसंस्कृत, शिक्षित और प्रबुद्ध लोगों से संबंधित था, जो समाज के अभिजात वर्ग से आते थे ।

 

बम विस्फोटों, गोली-कांडों और ब्रिटिश उच्च-अफसरों की हत्याओं के इस आंदोलन के नयेपन ने इस मुकदमे में लोगों की रुचि और बढ़ा दी थी । 'संध्या' और 'जुगांतर' के लेखों ने इस क्रांतिकारी आंदोलन को और अधिक ऊर्जा दी थी । इन लेखों ने अपनी सशक्त और गंभीर भाषा में विदेशियों के लिए तीव्र घृणा और बंधन मुक्ति का ऐसा गहन आवेग संचारित किया था कि उन्हें ब्रिटिश सम्राट के विरुद्ध लड़ाई छेड़ने के षड्यंत्र को साबित करने के प्रमाण के तौर पर अदालत में रखा और पढ़ा गया था ।

 

सन् 1905 से देश के राजनीतिक आकाश में गहरा धुंध सा छा गया था, क्योंकि शहरों के बुद्धिजीवी मोहभंग की स्थिति से गुजर रहे थे और इसी विरक्ति का प्रसार क्रमशः गावों तक हो रहा था । देशी भाषाओं की पत्र-पत्रिकाएं ब्रिटिश नौकरशाही के प्रति अत्यंत आलोचनात्मक रवैया रखती थीं और उच्च, सुसंस्कृत लोगों द्वारा नरमपंथियों की नीतियों का राजनीतिक औसतपन कहकर मजाक उड़ाया जाता था । 'नेशनलिस्ट' के नाम से प्रसिद्ध उग्रवादियों ने अपना अलग गुट बना लिया था । लार्ड कर्जन द्वारा 7 जुलाई 1905 को बंगाल के विभाजन की योजना की उद्घोषणा के बाद कृष्ण कुमार मित्र ने 'संजीवनी' में एक लेख लिखा था और बंगालियों से विदेशी वस्तुओं का, जहां तक हो सके, बहिष्कार करने को कहा था । यह उसी स्वदेशी आंदोलन का आरंभ था, जो आगे चलकर 'बायकाट' के नाम से भी जाना गया । भारत के हर हिस्से में विदेशी वस्तुओं और कपड़ों की होली जलाई गयी और जगह-जगह विदेशी वस्तुएं बेचने वाली दुकानों पर पिकेटिंग की गयी ।

सरकार ने इसके जवाब में अखबार बंद करने, प्रकाशकों, लेखकों, संपादकों पर मुकदमे चलाने तथा बंगाल के अनेकों युवाओं को गिरफ्तार करने जैसे कड़े कदम उठाये ।


किंग्सफोर्ड की हत्या


कलकत्ता के मुख्य प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट श्री किंग्सफोर्ड ने अपना असली रूप दिखाते हुए छात्रों, नेताओं और पत्रकारों को कठोर दंड सुनाये, जिसके जवाब में किंग्सफोर्ड को खत्म करने का फैसला किया गया । किंग्सफोर्ड का तबादला जिला न्यायाधीश के रूप में मुजफ्फरपुर में कर दिया गया । क्रांतिकारियों ने दो युवकों खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी को इस काम के लिए कलकत्ता से मुजफ्फरपुर भेजा । किंग्सफोर्ड की गतिविधियों पर नजर रखने के बाद उन्हें पता चला कि वह अक्सर शाम को अपनी पत्नी के साथ फिटन (घोड़े द्वारा खींची जाने वाली बग्घी) में बैठकर प्लांटर्स क्लब जाता है । एक शाम उन्होंने गलती से एक बग्घी पर, किंग्सफोर्ड की फिटन समझकर, बम फेंका, लेकिन उसमें श्रीमती कैनेडी और उनकी बेटी जा रही थीं, जो इस बम विस्फोट में मारी गयीं । 1 मई 1908 को मुजफ्फरपुर से कुछ मील दूर वैनी रेलवे स्टेशन पर खुदीराम बोस को गिरफ्तार कर लिया गया, जबकि प्रफुल्ल चाकी मोकामा रेलवे स्टेशन पर पकड़ा गया ।

चाकी ने अपनी रिवाल्वर निकालकर कर खुद को गोली मार ली । खुदीराम बोस पर मुकदमा चलाया गया और उन्हें मृत्युदंड सुनाया गया । उनका नाम शहादत का पर्याय बन गया । सदमे और आतंक की एक लहर जैसे पूरे देश में दौड़ गयी । मई 1908 में ब्रिटिश सरकार ने बरीन्द्र घोष, उनके भाई अरविंद, उल्लासकर दत्त, हेमचन्द्र दास, उपेन्द्रनाथ बनर्जी समेत 37 व्यक्तियों को गिरफ्तार किया, और उन पर मुकदमा चलाया । पहले दौर में जिला न्यायाधीश एल. बरले के समक्ष इंस्पेक्टर पी.सी. बिस्वास ने 19 मई 1908 को एक एफ.आई.आर. दर्ज किया, जिसमें अन्य बातों के अलावा कहा गया था :

 

पिछली दिवाली को, या उसके आसपास, हिज ऑनर की विशेष गाड़ी को, मनकुंड और चन्द्रनगर रेलवे स्टेशनों के बीच क्षतिग्रस्त करने का प्रयास । अभियुक्त उल्लासकर दत्त, ऋषिकेश कांजीलाल और नरेन्द्र गोसाई इसमें शामिल थे और गिरफ्तार किए जा चुके हैं । इन सभी ने अपनी भागीदारी स्वीकार कर ली है ।

 

पिछली सर्दियों में हिज ऑनर की विशेष गाड़ी को मनकुंड चन्द्रनगर रेलवे स्टेशनों के बीच उड़ाने की तैयारी । अभियुक्त बरीन्द्रकुमार घोष, विभूतिभूषण सरकार और उल्लासकर दत्त इस काम में अपनी भूमिका स्वीकार कर चुके हैं और गिरफ्तार किए जा चुके हैं ।

 

6 दिसंबर 1907 को हिज ऑनर की विशेष गाड़ी को मिदनापुर में नारायणगढ़ रेलवे स्टेशन के पास क्षतिग्रस्त करने का प्रयास । अभियुक्त बरीन्द्रकुमार घोष, विभूतिभूषण सरकार और प्रफुल्ल चाकी ने बारूदी सुरंग बिछाई और अभियुक्त उल्लासकर दत्त ने उसका निर्माण किया । प्रफुल्ल चाकी को छोड़कर, जिसने मुजफ्फरपुर बम कांड के बाद आत्महत्या कर ली थी, बाकी सभी को गिरफ्तार किया जा चुका है ।

 

फ्रेंच चन्द्रनगर बम कांड का मुकदमा 11 अप्रैल 1908 को दाखिल किया गया । बरीन्द्रकुमार घोष, नरेन्द्र गोसाई, इंदुभूषण राय का इससे संबंध था । ये सभी अपना अपराध मान चुके हैं । इस कांड में इस्तेमाल किया गया बम अभियुक्त हेमचन्द्र दास और उल्लासकर दत्त की कारगुजारी भर था । उल्लासकर दत्त अपना अपराध स्वीकार कर चुका है । फ्रेंच चन्द्रनगर से जुड़े दो और व्यक्ति भी इस मामले से संबंधित थे ।

 

मुजफ्फरनगर हत्याकांड 30 अप्रैल 1908 को दाखिल किया गया । ऐसा आरोप लगाया गया था कि इस कांड में इस्तेमाल किया गया बम हेमचंद्र दास और उल्लासकर दत्त की कारगुजारी था । कहा गया कि उल्लासकर ने यह स्वीकार किया है कि पूरी योजना अभियुक्त बरीन्द्रकुमार घोष द्वारा बनाई गयी थी, जिसने इस अपराध में अपनी सहापराधिता स्वीकार की थी । श्रीमती और कुमारी कैनेडी की हत्या की असली जिम्मेदारी दो व्यक्तियों की थी - मिदनापुर के खुदीराम बोस की और बोगरा के प्रफुल्ल चाकी की । पहले व्यक्ति ने गिरफ्तारी के बाद अपना अपराध स्वीकार किया था जबकि दूसरे व्यक्ति ने ऐन गिरफ्तारी के वक्त आत्महत्या कर ली थी।

 

इन सभी अनावृत्त तथ्यों को देखते हुए सभी उन अभियुक्तों पर, जो एक गुप्त संस्था के सदस्य थे, भारतीय दंड संहिता की धाराओं 143, 145, 150, 157, 121, 121-, 122, 123, और 124 के अंतर्गत अभियोग लगाये गये हैं । अपराध प्रक्रिया संहिता की धारा 196 के अंतर्गत अपेक्षित मंजूरी भी दाखिल की गयी है ।

 

अभियुक्तों में से कई व्यक्तियों ने कमिटल मेजिस्ट्रेट के सामने अपने बयान दिये, लेकिन श्री बरीन्द्रनाथ घोष (श्री अरविंद के सबसे छोटे भाई) द्वारा दिया गया वक्तव्य एक युवक के अप्रतिम साहस और मजबूत इरादे का परिचायक है । उनके वक्तव्य के कुछ अंश यहां प्रस्तुत हैं :

अपनी प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद मैं ढाका गया, जहां मेरे भाई मनमोहन घोष प्रोफेसर थे । अपनी कला स्नातक शिक्षा का पहला साल मैंने वही पास किया । उसके बाद पढ़ाई छोड़कर में बड़ौदा आ गया, जहां मेरे भाई अरविंद घोष गायकवाड़ कालेज में प्रोफेसर थे । वहां में इतिहास और राजनीतिक साहित्य पढ़ने में डूब गया । एक साल वहां रहने के बाद मैं एक राजनीतिक मिशनरी बनकर स्वतंत्रता प्राप्ति का प्रचार करने के इरादे से कलकत्ता वापिस आया । एक जिले से दूसरे जिले तक घूम-घूम कर मैंने ऐसी व्यायामशालाओं की स्थापना की, जहां युवक इकट्ठे होकर व्यायाम सीखते थे और राजनीति की दीक्षा लेते थे । मैंने दो साल लगातार स्वतंत्रता प्राप्ति का प्रचार-प्रसार किया । इस समय तक मैं बंगाल के सभी जिलों को जान चुका था । मैं इस काम से थक चुका था, इसलिए दोबारा बड़ौदा चला गया । वहां एक साल तक पढ़ने के बाद मैं इस बात को स्वीकार करके वापिस बंगाल आया कि विशुद्ध राजनीतिक प्रचार देश के लिए अपर्याप्त है और खतरों का सामना करने के लिए लोगों को मानसिक रूप से तैयार करना जरूरी है । मेरा इरादा एक धार्मिक संस्थान की स्थापना करना था । इस समय तक 'स्वदेशी' और 'बायकाट' आंदोलन शुरू हो चुका था । मैंने कुछ व्यक्तियों को साथ लेकर, उन्हें प्रशिक्षण देने का निर्णय किया और यह दल बनाया, जिसे गिरफ्तार किया गया है । अपने दोस्तों अबिनाश भट्टाचार्य (जो गिरफ्तार किए गये हैं) और भूपेन्द्रनाथ दत्त (जो जेल में हैं) के साथ मिलकर मैंने 'जुगांतर' पत्र निकालना शुरू किया । इसे हमने डेढ़ साल तक निकाला और फिर उसे उसके वर्तमान प्रबंधकों को सौंप दिया । इसके बाद मैंने फिर प्रशिक्षण के दाखिले का काम शुरू किया । 1907 से अब तक मैं कुल मिलाकर चौदह-पंद्रह युवक एकत्र कर चुका हूं । मैं इन युवकों को धार्मिक किताबों और राजनीति की शिक्षा देता था । हम हमेशा आने वाली क्रांति का स्वप्न देखते थे और उसके लिए तैयार रहना चाहते थे, इसलिए हम धीरे-धीरे हथियार इकट्ठे कर रहे थे । कुल मिलाकर मैंने ग्यारह रिवाल्वर, चार राइफलें और एक बंदूक एकत्र की है । हमारे दल में शामिल होने वाले अन्य व्यक्तियों में उल्लासकर दत्त भी था । मुझे ठीक-ठीक याद नहीं, लेकिन यह इस साल की शुरुआत की बात है । उसने कहा कि वह हम लोगों में शामिल होकर हमारे लिए उपयोगी होना चाहता है तथा वह विस्फोटक बनाना भी जानता है ।  उसके घर में एक छोटी-सी प्रयोगशाला है, जहां वह अपने पिता की जानकारी के बिना प्रयोग करता है । मैंने वह प्रयोगशाला कभी देखी नहीं, उसके बारे में सिर्फ सुना ही है । उसकी मदद से हम 32, मुरारीपुकर रोड के उद्यानगृह में थोड़ी-थोड़ी मात्रा में विस्फोटक बनाने लगे । इसी बीच हमारा एक और मित्र, मिदनापुर जिले के कुंडरी का हेमचन्द्र दास मेरे ख्याल से अपनी संपत्ति का एक भाग बेचने के बाद पेरिस चला गया, जिससे कि हो सके तो विस्फोटक बनाना सीख सके... "

 

सभी तथ्यों को स्पष्ट रूप से सामने रखते हुए उन्होंने आगे कहा - "इन तथ्यों को सामने रखने में मेरा क्या प्रयोजन था, कृपया उसे देख लें । इन तथ्यों को उजागर करने की उपयुक्तता को लेकर हमारे दल में मतभेद था । कुछ का सोचना था कि वे हर बात से इंकार कर देंगे और जो भी परिणाम होगा, उसे झेलेंगे । लेकिन मैंने उन्हें मजबूर किया कि वे इंस्पेक्टर रामसदय मुखर्जी को लिखित और मौखिक बयान दें, क्योंकि मेरा मानना था कि यह दल तो पकड़ा जा चुका है, इसलिए देश में और कोई काम करना ठीक नहीं है । फिर, हम बेगुनाहों को भी बचाना चाहते थे ।"

23 जून 1905 को नरेन्द्र गोसाईं को माफ कर दिया गया और रिहा कर दिया गया । तदुपरांत मैजिस्ट्रेट ने अभियुक्तों को दो दलों में बांटकर उन पर अभियोग लगाये । पहले दल में, उसने बरीन्द्र घोष पर भारतीय दंड संहिता की धाराओं 121, 121-ए और 123 के अंतर्गत अभियोग लगाये और उन्हें सेशन कोर्ट के सुपुर्द कर दिया । 24 परगना के जिला मजिस्ट्रेट एल. बरले ने अरविंद वाले दल के अभियुक्तों पर अभियोग लगाये । 19 अगस्त 1908 को अदालत में पढ़े गये ये अभियोग यूं थे :

पहला - तुमने 15 मई 1908 से एक साल पहले या उसके आसपास, 32, मुरारीपुकर रोड, मानिक टोला (जो मेरे अधिकार क्षेत्र में आता है) समेत बंगाल में कई स्थानों पर सम्राट के विरुद्ध युद्ध किया, सम्राट के विरुद्ध युद्ध करने का प्रयास किया और सम्राट के विरुद्ध युद्ध छेड़ने को उकसाया और इस तरह तुमने भारतीय दंड संहिता की धारा 121 के अंतर्गत और सेशन कोर्ट के विचाराधिकार के भीतर दंडनीय अपराध किया ।

 

दूसरा - तुमने 15 मई 1908 से एक साल पहले या उसके आसपास 32, मुरारीपुकर रोड, मानिक टोला समेत, बंगाल में कई स्थानों पर सम्राट के खिलाफ युद्ध छेड़ने और उन्हें ब्रिटिश भारत के आधिपत्य से वंचित करने का षड्यंत्र किया और तुमने भारत सरकार और बंगाल की स्थानीय सरकार को अनुचित तरीकों से आतंकित करने का प्रयास किया और इस तरह तुमने भारतीय दंड संहिता की धारा 121-ए के अंतर्गत और सेशन कोर्ट के विचाराधिकार के भीतर दंडनीय अपराध किया ।

 

तीसरा - तुमने 15 मई 1908 से एक साल पहले या उसके आसपास, 32, मुरारीपुकर रोड, मानिक टोला समेत बंगाल में कई स्थानों पर सम्राट के खिलाफ युद्ध करने की योजना के अस्तित्व को जान बूझकर छिपाया था, यह जानते हुए कि इसे छिपाने से ऐसा युद्ध छेड़ने में तुम्हें आसानी होगी और इस तरह तुमने भारतीय दंड संहिता की धारा 123 के अंतर्गत और सेशन कोर्ट के विचाराधिकार के भीतर दंडनीय अपराध किया ।

 

और मैं, इसके द्वारा, यहां आदेश देता हूं कि तुम पर उक्त अभियोगों के तहत उक्त कोर्ट द्वारा मुकदमा चलाया जाये।

 

अभियुक्तों ने अपना अपराध अस्वीकार किया और मुकदमे चलाने के लिए उन्हें सेशन कोर्ट के सुपुर्द कर दिया गया । 19 अक्तूबर 1908 को अतिरिक्त सेशन न्यायाधीश के सम्मुख मुकदमा शुरू हुआ, जिन्होंने अभियुक्तों पर निम्नलिखित अभियोग लगाये :

मैं, इसके द्वारा तुम पर ये अभियोग लगाता हूं :

पहला - तुमने 15 मई 1908 से एक साल पहले या उसके आसपास, 32, मुरारीपुकर रोड, मानिक टोला समेत, बंगाल में कई स्थानों पर भारत के महामहिम सम्राट के विरुद्ध युद्ध किया और इस तरह भारतीय दंड संहिता की धारा 121 के अंतर्गत और सेशन कोर्ट के विचाराधिकार के भीतर दंडनीय अपराध किया ।

दूसरा - तुमने 15 मई, 1908 से एक साल पहले या उसके आसपास, 32, मुरारीपुकर रोड, मानिक टोला समेत, बंगाल में कई स्थानों पर भारत के महामहिम सम्राट के विरुद्ध युद्ध करने का प्रयास किया और इस तरह भारतीय दंड संहिता की धारा 121 के अंतर्गत और सेशन कोर्ट के विचाराधिकार के भीतर दंडनीय अपराध किया ।

 

तीसरा - तुमने 15 मई 1908 से एक साल पहले या उसके आसपास, 32, मुरारीपुकर रोड, मानिक टोला समेत, बंगाल में कई स्थानों पर भारत के महामहिम सम्राट के विरुद्ध युद्ध करने के लिए एक दूसरे को और अन्य व्यक्तियों को उकसाया और इस तरह भारतीय दंड संहिता की धारा 121 के अंतर्गत और सेशन कोर्ट के विचाराधिकार के भीतर दंडनीय अपराध किया ।

 

चौथा - तुमने 15 मई 1908 से एक साल पहले या उसके आसपास, 32, मुरारीपुकर रोड, मानिक टोला समेत, बंगाल में कई स्थानों पर आपस में मिलकर और अन्य व्यक्तियों के साथ, भारतीय दंड संहिता की धारा 121 के अंतर्गत आने वाले सभी या उनमें से कुछ अपराध किये, जो पहले तीन अभियोगों में बताए जा चुके हैं और इस तरह भारतीय दंड संहिता की धारा 121-ए के अंतर्गत और सेशन कोर्ट के विचाराधिकार के भीतर दंडनीय अपराध किये ।

 

पांचवां - कि तुमने 15 मई 1908 से एक साल पहले या उसके आसपास, 32, मुरारीपुकर रोड, मानिक टोला समेत, बंगाल में कई स्थानों पर आपस में मिलकर और अन्य व्यक्तियों के साथ, भारत के महामहिम सम्राट को ब्रिटिश भारत या उसके एक भाग के आधिपत्य से वंचित करने का षड्यंत्र किया और इस तरह भारतीय दंड संहिता की धारा 121-ए के अंतर्गत और सेशन कोर्ट के विचाराधिकार के भीतर दंडनीय अपराध किया ।

 

छठा - तुमने 15 मई 1908 से एक साल पहले या उसके आसपास, 32, मुरारीपुकर रोड, मानिक टोला समेत, बंगाल में कई स्थानों पर आपस में मिलकर और अन्य व्यक्तियों के साथ, भारत सरकार तथा बंगाल की स्थानीय सरकार को अनुचित तरीकों से आतंकित करने का षड्यंत्र किया और इस तरह भारतीय दंड संहिता की धारा 121-ए के अंतर्गत और सेशन कोर्ट के विचाराधिकार के भीतर दंडनीय अपराध किया ।

सातवां - तुमने 15 मई 1908 से एक साल पहले या उसके आसपास, 32, मुरारीपुकर रोड, मानिक टोला समेत, बंगाल में कई स्थानों पर लोग, हथियार और गोली-बारूद एकत्र किये और भारत में महामहिम सम्राट के विरुद्ध युद्ध करने का इरादा या युद्ध करने की तैयारी की और इस तरह भारतीय दंड संहिता की धारा 122 के अंतर्गत और सेशन कोर्ट के विचाराधिकार के भीतर दंडनीय अपराध किया ।

 

आठवां - तुमने 15 मई 1908 से एक साल पहले या उसके आसपास, 32, मुरारीपुकर रोड, मानिक टोला समेत, बंगाल में कई स्थानों पर, भारत के महामहिम सम्राट के विरुद्ध युद्ध करने की योजना के अस्तित्व को जान-बूझकर छिपाया, यह जानते हुए कि इसे छिपाने से ऐसा युद्ध छेड़ने में तुम्हें मदद मिलेगी और इस तरह तुमने भारतीय दंड संहिता की धारा 123 के अंतर्गत और सेशन कोर्ट के विचाराधिकार के भीतर दंडनीय अपराध किया।

 

बचाव पक्ष की ओर से न्यायाधिकार, अभियोग प्रमाण और गवाहों के संबंध में तथा तलाशी के तरीके और पद्धति को लेकर ग्यारह ठोस कानूनी आपत्तियां उठाई गयीं । ये सभी आपत्तियां रद्द कर दी गयीं और श्री ई.नॉरटन ने साम्राज्य की तरफ से मुकदमे का आरंभ किया, जिसमें उन्हें छह दिन लगे । फिर उन्होंने गवाहों को बुलाया । साम्राज्य की तरफ से, कुल मिलाकर 206 गवाहों से जिरह की गयी और अनेकों भारी-भरकम दस्तावेज पेश किए गये ।

 

4 मार्च 1909 को सरकारी वकील ने अपना साक्ष्य समाप्त किया । तदुपरांत न्यायाधीश ने अभियुक्तों से उनके विरुद्ध साक्ष्यों के स्पष्टीकरण देने को कहा । लगभग सभी अभियुक्तों ने पूछे गए सवालों का जवाब देने से इंकार कर दिया और केवल इतना ही कहा कि उनकी तरफ से उनके वकील ही बहस करेंगे और साक्ष्यों के स्पष्टीकरण देंगे ।

 

श्री नॉरटन ने फिर अपनी बहस की शुरुआत की, जो 20 मार्च तक चली । फिर बचाव पक्ष के वकील और अभिवक्ताओं ने अदालत को संबोधित किया । श्री सी.आर.दास ने अरविंद की तरफ से आठ दिन तक बहस की । उनके तर्को ने अदालत को 13 अप्रैल 1909 तक व्यस्त रखा । दास एक मनीषी का बचाव करने के इस अवसर में अपनी विशिष्ट भूमिका को लेकर अत्यंत उत्साहित थे । अरविंद के खिलाफ अधिकांश प्रमाण उनके द्वारा अपनी पत्नी को लिखे गए पत्र और भाषण-लेख इत्यादि थे । दास ने यह साबित करने की कोशिश की कि श्री अरविंद एक अत्यंत धार्मिक, ईश्वर-प्रेरित वेदांती थे और उनकी राष्ट्रभक्ति और देशवासियों के प्रति निष्ठा ही उनकी राजनीति का आधार थी ।

उस 'स्वीट्स लैटर' पर टिप्पणी करते हुए, जिस पर पूरे भारत में वाम-पंथ के प्रसार का मामला आधारित था, उन्होंने कहा :

"इस पत्र में वह जो पहला महान आदर्श सामने रखते हैं, वह यह है कि वह अपनी सारी संपत्ति के ट्रस्टी भर हैं । उनका यह कर्तव्य है कि वह अपने आप पर कम से कम खर्च करें, जिससे कि वह ईश्वर के लिए जिंदा रहकर उसे बाकी सब दे दे । कैसे? ईश्वर के लिए काम करके, यानी भूखों को खाना खिलाकर और जरूरतमंदों की मदद करके । तभी और केवल तभी आप ईश्वर का ऋण लौटा सकते हैं । अगर एक मनुष्य ऐसा नहीं करता, तो वह चोर है । ये उनके निजी स्वार्थ नहीं हैं, जिनके लिए वह जीवित रहने का निश्चय किए हैं । वह अपने लिए सिर्फ उतना ही चाहते हैं जितना भरण-पोषण के लिए जरूरी है, बाकी वह ईश्वर को दे देंगे । यह करने का एकमात्र तरीका परोपकार है-भूखों को खिलाना और जरूरतमंदों की मदद करना है ।

 

जिस दूसरे महान आदर्श की तरफ उन्होंने संकेत किया है, वह उनके मन का विश्वास है कि ईश्वर को देख पाना संभव है, वास्तविक रूप में नहीं, बल्कि हिंदू धर्म के अनुसार ईश्वर को अपने मानस में देखकर मनुष्य अपने भीतर के ईश्वरत्व को पा सकता है । यहां यह व्यक्ति स्वयं ईश्वरत्व को अनुभव करने की अपनी तीव्र आकांक्षा को अभिव्यक्त कर रहा है । यह उसका दूसरा महान आदर्श है । एक और बात है और वह यह कि इस पत्र में गुरु (आध्यात्मिक पथ-प्रदर्शक) की तरफ एक छिपा हुआ संकेत भी है ।

 

भद्रजनो, क्योंकि आप जानते हैं कि जब एक हिंदू स्वयं को एक आध्यात्मिक पथ-प्रदर्शक के सुपुर्द करता है, तो वह न तो अपने गुरु का नाम बताया करता है और न ही यह तथ्य किसी को बताता है कि उसने ऐसा किया है । गुरु की आज्ञा न हो, तो वह इसे अपनी पत्नी तक को नहीं बता सकता । (पढ़ते हुए) "जिवार नियम देखायचे देखायचे" और यह कि अगर किसी को ऐसे आचरण के नियम बताए गए हैं, जिन पर चलकर वह अपने भीतर विद्यमान ईश्वर को अनुभव कर सके, तो वह इन्हीं नियमों के अनुसार अपने जीवन को आकार देता है ।

 

तब यह अपने तीसरे आदर्श पर आते हैं । यहां वह अपने राष्ट्र प्रेम का आधार सामने रखते हैं । आप जानते हैं कि वेदांत के सिद्धांतों के अनुसार सारा विश्व ईश्वर की ही अभिव्यक्ति है । जब तक आप यह अनुभूति नहीं करते हैं कि सारा विश्व ईश्वरत्व की अभिव्यक्ति है, जब तक आप अपने भीतर यह अनुभव नहीं करते हैं कि यह संसार जिसे आप अपने चारों ओर देखते हैं, और यह देश, जिसमें आप रहते हैं, ईश्वरत्व की अभिव्यक्ति है, तब तक ये सभी अवास्तविक हैं । ये तब तक मिथ्या हैं जब तक आप ब्रह्म और उनके बीच के संबंध को, साहचर्य को अनुभव नहीं करते । लेकिन जब आप यह जान लेते हैं कि ये ब्रह्म से विलग नहीं, बल्कि ईश्वरत्व के ही अंश और अभिव्यक्ति हैं, उसी क्षण में ये अयथार्थ न रहकर वास्तविक हो जाते हैं ।

 

दास ने दूसरे कई गवाहों के प्रमाणों की तरफ संकेत किया, उन पर टिप्पणियां कीं और समाहार करते हुए कहा- "योर ऑनर, मैं आपका और महानुभाव साथियों का धन्यवाद करता हूं क्योंकि आपने इस मुकदमे में मुझे लगातार धैर्य और सदाशयता के साथ सुना । मेरी एकमात्र इच्छा यह थी कि इस मुकदमे को अदालत के सामने पेश करने का काम किसी और पर पड़ा होता, लेकिन चूंकि इस काम का उत्तरदायित्व मुझ पर पड़ा, इसलिए मैंने अदालत के सामने इस मुकदमे के सभी प्रमाणों को सुसम्बद्ध रूप में प्रस्तुत करने का हर संभव प्रयास किया । एक बात है, जो मुझे इस मुकदमे की शुरुआत में ध्यान आई थी लेकिन जिसकी मैंने अब तक चर्चा नहीं की, क्योंकि मैंने सोचा कि रिकार्ड पर सभी मौखिक और लिखित प्रमाणों पर विचार करने के बाद ही इस बात पर समुचित और सुविधाजनक रूप से विचार किया जा सकता है । योर ऑनर, आप पायेंगे कि मेरे विद्वान साथी के अनुसार अरविंद ही इस षड्यंत्र का सर्वेसर्वा हैं । मेरे विद्वान साथी ने अरविंद को अपार बौद्धिक योग्यताओं का गौरव प्रदान किया है और उनका मानना है कि अरविंद ही इस षड्यंत्र का निर्देशन कर रहे थे और पर्दे के पीछे काम कर रहे थे । इस संदर्भ में, योर ऑनर, मैं आपके सामने यह कहना चाहता हूं कि प्रमाणों के आधार पर स्थापित षड्यंत्र की प्रकृति को देखते हुए, (अगर वह स्थापित किया जाता है तो) यह संभव नहीं कि अरविंद का ऐसे षड्यंत्र की सफलता में कोई यकीन रहा हो ।

सभी प्रमाणों का विश्लेषण करने के उपरांत श्री दास ने समाहार करते हुए कहा- "इसलिए मैं आपसे अपील करता हूं कि यह व्यक्ति, जिस पर उक्त अपराध करने के आरोप लगाए गये हैं, सिर्फ इस अदालत के कठघरे में नहीं, बल्कि इतिहास की 'ऊंची अदालत' के कठघरे में खड़ा है और मेरी आपसे प्रार्थना है जब यह विवाद शांत हो चुका होगा, जब यह अशांति और आंदोलन का दौर थम चुका होगा, जब यह व्यक्ति इस दुनिया से जा चुका होगा, तब उसे एक राष्ट्रभक्त कवि का गौरव प्रदान किया जायेगा, राष्ट्रभर का मसीहा और मानवता का उद्धारक माना जायेगा । जब यह इस दुनिया से जा चुका होगा, तब उसके शब्द सिर्फ भारत में ही नहीं, सुदूर देशों और सागरों के पार भी गूंजते रहेंगे । इसीलिए मैंने कहा है कि उसके जैसा व्यक्ति सिर्फ इसी अदालत के कठघरे में नहीं, बल्कि इतिहास की ऊंची अदालत के कठघरे में खड़ा है ।"

 

बचाव पक्ष के दूसरे वकीलों की बहस के बाद 6 मई 1909 को निर्णय सुनाया गया । विद्वान सेशन न्यायाधीश ने यह दंड सुनाया  :

अभियुक्त बरीन्द्रकुमार घोष और उल्लासकर दत्त को भारतीय दंड संहिता की धाराओं 121, 121-ए और 122 के अंतर्गत मृत्युदंड दिया जाता है और उन्हें यह सूचना दी जाती है कि वे अपील करना चाहें तो, एक सप्ताह के भीतर कर सकते हैं । अभियुक्तों हेमचन्द्र दास, उपेन्द्रनाथ बनर्जी, विभूतिभूषण सरकार, ऋषिकेश कांजीलाल, बीरेन्द्र चन्द्र सेन, सुधीर कुमार घोष, इंद्रनाथ नंदी, अबिनाश चन्द्र भट्टाचार्य, शैलेन्द्र नाथ बोस को भारतीय दंड संहिता की धाराओं 121, 121-ए और 122 के अंतर्गत आजन्म निर्वासन का दंड दिया जाता है । अभियुक्तों परेश चौधरी मलिक, शिशिर कुमार घोष, निरापद राय को भारतीय दंड संहिता की धाराओं 121-ए और 122 के अंतर्गत दस साल के निर्वासन का दंड दिया जाता है । सभी अभियुक्तों की संपत्ति सरकार द्वारा जब्त कर ली जायेगी । अशोक चन्द्र नंदी, बालकृष्ण हरी काने, सुशील कुमार सेन को सात साल के निर्वासन का दंड दिया जाता है । कृष्ण जीवन सान्याल को धारा 121-ए के अंतर्गत एक साल के सपरिश्रम कारावास का दंड दिया जाता है । बाकी सभी अभियुक्तों को बरी कर दिया गया है और उन्हें रिहा करने का आदेश दिया जाता है । मृत्युदंड की पुष्टि के लिए रिकार्ड हाईकोर्ट को भेज दिए जायें ।"

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