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भारतीय दंड विधि का इतिहास | Indian Penal Code Law History

  भारतीय दंड विधि का इतिहास | Indian Penal Code Law History भारत की वर्तमान दण्ड विधि ( Indian Penal Code Law ) का अगर हम अध्ययन करे तो पाए...


 

भारतीय दंड विधि का इतिहास | Indian Penal Code Law History


भारत की वर्तमान दण्ड विधि (Indian Penal Code Law) का अगर हम अध्ययन करे तो पाएगे की भारत की वर्तमान दण्ड विधि, ब्रिटिश दण्ड विधि (British Penal Law) के आधार पर बनी है, अत: ब्रिटिशकालीन दण्ड-व्यवस्था पर हमे एक नजर डालनी होगी ।

इंग्लैण्ड की रानी एलिजाबेथ (Queen Elizabeth) के द्वारा जब सन् 1600 में राजलेख(Charter) जारी किया गया तो ईस्ट इण्डिया कम्पनी (East India Company) को भारत में व्यापार करनें का अधिकार मिला और कम्पनी को स्वयं के प्रशासन के लिए कानून बनाने की शक्ति भी दी गई |

इस राजलेख को सन् 1609 में जेम्स प्रथम (James I) तथा 1661 में चार्ल्स द्वितीय (Charles II of England ) द्वारा नवीनीकृत किया गया ।

सन् 1668 में बम्बई प्रदेश ईस्ट इण्डिया कम्पनी(East India Company) को मिल जाने के बाद, वहाँ के दण्ड प्रशासन के लिए इंग्लिश विधि को आपराधिक विधि (Criminal Law) के रूप में अपनाया गया और सन् 1726 मे मद्रास प्रेसीडेन्सी (Madras Presidency) के लिए लागू की गई।

सन् 1765 मे बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा के क्षेत्रों में दीवानी व्यवस्था लागू होने के कारण दीवानी न्यायालयों के साथ-साथ निजामत-अदालतों में भी अंग्रेजी विधि पद्धति लागू की गई। मद्रास प्रान्त की दण्ड-व्यवस्था बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा के प्रान्तों से कुछ भिन्न थी। मद्रास प्रान्त के जिला मुन्सिफों को 200 रु० तक के अर्थदण्ड या एक माह तक के कारावास से दण्डनीय अपराधों को निपटाने की अधिकार था । सन् 1816 में उनकी अधिकारिता में वृद्धि की गई तथा अब वे एक वर्ष तक के कारावास का दण्ड दे सकते थे।

सन् 1772 में भारत जैसे देश मे दण्ड-व्यवस्था लागू करने का सारा श्रेय वारेन हेस्टिंग्स (Warren Hastings)को जाता है, जिन्होंने न्यायिक व्यवस्था के अन्तर्गत प्रत्येक जिले में एक फौजदारी अदालत स्थापित की थी । अदालत के अंग्रेज न्यायाधीश, काज़ी तथा मुफ्ती की सहायता से भारतीयों के आपराधिक मामले निपटाते थे और जिले का कलेक्टर इन अदालतों की कार्य प्रणाली पर निगरानी रखता था । मगर इन अदालतों को यूरोपीयन प्रजा पर अधिकारिता प्राप्त नहीं थी |

वारेन हेस्टिंग्स (Warren Hastings) द्वारा लागु की गई अदालत-व्यवस्था मे दो मुख्य बाते थी -

पहली यह की भारतीयों के लिए अंग्रेजी दण्ड-विधि लागू न कर उनके मामलों को भारतीय पक्षकारों के व्यक्तिगत विधि के आधार पर निपटाया जाता था । और दूसरे यह की फौजदारी प्रकरण (आपराधिक न्याय प्रशासन) मे मुस्लिम दण्ड-विधि प्रयुक्त होती थी । इस प्रकार बंगाल तथा मद्रास में मुस्लिम दण्ड-व्यवस्था लागू थी, जब कि बम्बई मे हिन्दू दण्ड-विधि थी, मगर मुस्लिम पक्षकारों के मामले मुस्लिम दण्ड-व्यवस्था के आधार पर ही निपटाये जाते थे ।


Regulating Act of 1773


सन 1773 में पारित किये गये रेग्यूलेटिंग एक्ट (Regulating Act of 1773) का उस समय चल रही दण्ड व्यवस्था पर गहरा प्रभाव पड़ा। रेग्यूलेटिंग एक्ट (Regulating Act) के अनुसार ब्रिटिश सरकार भारत के लिए कलकत्ता में गवर्नर-जनरल तथा उसकी परिषद का नियुक्ति की थी । इस परिषद में गवर्नर-जनरल के अलावा चार सदस्य थे, जो गवर्नर-जनरल को सलाह देते थे और फोर्ट विलियम (कलकता)में एक सुप्रीम कोर्ट ऑफ ज्यूडीकेचर (Supreme Court of Judicature) की स्थापना भी की गई । सुप्रीम कोर्ट मे दीवानी, फौजदारी, धार्मिक आदि मामलो का निपटारा किया जाता था । सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्णय कलकत्ता में निवास करने के वाले ब्रिटिश नागरिकों की जूरी (Jury) की सहायता से किया जाता था । इस न्यायालय के निर्णयों के विरुद्ध इंग्लैण्ड उच्च न्यायालय में अपील की जा सकती थी ।


बंदोबस्त अधिनियम 1781 । Settlement Act 1781


सन् 1781 के बन्दोबस्त अधिनियम द्वारा दण्ड-प्रशासनिक व्यवस्था में सुधार करते हुए गवर्नर जनरल को यह अधिकार दिया गया की वह प्रांतों में प्रांतीय न्यायालयों की स्थापना करे तथा इन न्यायालयों को हुई अपीलों की सुनवाई के लिए एक अलग समिति की नियुक्ति करे । बंगाल में हिन्दू तथा मुसलमान, दोनों के ही आपराधिक मामले मुस्लिम विधि के अनुसार निपटाए जाते थे ।

सन् 1793 में तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड कार्नवालिस (Charles Cornwallis) ने दण्ड-विधि प्रशासन में सुधार किये। उनक़े इस सुधार के अनुसार कलेक्टरों के सभी फौजदारी-अधिकार समाप्त कर प्रांतीय अपीलीग न्यायालयों के न्यायाधीशों को आपराधिक मामलों में अधिकारिता दी गई ।

ये न्यायाधीश संभागीय जिलों में दौरा करते हुए फौजदारी मामले निपटाते थे । प्रत्येक न्यायालय में तीन अंग्रेज न्यायाधीश होते थे। सरकार की सर्वोच्च परिषद (Supreme Council) होने के कारण सपरिषद-गवर्नर जनरल (council-governor general) को अपराधियों को क्षमादान करने की अधिकार प्राप्त था तथा वह अपराधी को दिये गए दण्ड कों अप्रभावी करना या कुछ समय के लिए रोक भी सकता था ।


सदर अमीन या प्रमुख सदर अमीन । Sadar Ameen And Principal Sadar Ameen


सन् 1793 की न्यायिक योजना के अन्तर्गत बंगाल प्रदेश के अंदरूनी क्षेत्रों के लिए न्यायिक अधिकारियों, जिन्हें सदर अमीन या प्रमुख सदर अमीन (Principal Sadar Ameen) कहा जाता था, आपराधिक मामलों को निपटाने की सीमित अधिकार-शक्ति दी गई । इस अधिकार के अनुसार वे चोरी जैसे छुटपुट मामलों में पचास रुपये तक के अर्थदण्ड या एक माह तक के कारावास की सजा दे सकते थे । मगर गम्भीर आपराधिक प्रकरणों का निपटारा मजिस्ट्रेट द्वारा ही किया जा सकता था । मृत्युदण्ड देने की अधिकार केवल सेशन न्यायाधीश (sessions judge) को ही थी, जिसकी पुष्टि सदर निजामत अदालत द्वारा किया जाना आवश्यक था । यह योजना बंगाल प्रान्त में सन् 1793 में लागू की गई न्यायिक योजना सन् 1833 तक लागू रही।

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