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धोखाधड़ी का मामला | जयकिशन दास मनोहर दास देसाई एवं अन्य बनाम बम्बई राज्य | Fraud Case | Jaikishan Das Manohar Das Dasai and Others vs. State of Mumbai

धोखाधड़ी का मामला | जयकिशन दास मनोहर दास देसाई एवं अन्य बनाम बम्बई राज्य | Fraud Case | Jaikishan Das Manohar Das Dasai and Others vs. State...

धोखाधड़ी का मामला | जयकिशन दास मनोहर दास देसाई एवं अन्य बनाम बम्बई राज्य | Fraud Case | Jaikishan Das Manohar Das Dasai and Others vs. State of Mumbai


जयकिशन दास मनोहर दास देसाई एवं अन्य बनाम बम्बई राज्य(सन 1960 )( Jaikishan Das Manohar Das Dasai and Others vs. State of Mumbai (1960)) का मामला भी महत्वपूर्ण है । इस प्रकरण में दो अभियुक्तों के विरुद्ध धारा 409/34 (भा० द० सं०) के अन्तर्गत आपराधिक न्यास भंग का आरोप था । इन दो अभियुक्तों में से एक पारिख डाइंग एण्ड प्रिंटिंग मिल्स लि० बम्बई, का प्रबन्ध-निदेशक था तथा दूसरा उस मिल का तकनीकी निदेशक था । बम्बई के वस्त्र आयुक्त (Textile Commissioner) ने इन दो अभियुक्तों को 251060 गज कपड़ा रंगाई व प्रिंटिंग के लिए दिया, परंतु अभियुक्त ने इनमे से 12,9748 गज कपडा वस्त्र आयुक्त को नहीं लौटाया ।

दिनांक 29 दिसम्बर, 1958 में मिल की तलाशी में भी यह कपड़ा बरामद नहीं हुआ । अतः अभियुक्तों के विरुद्ध आपराधिक न्यास भंग के लिए मामला दायर किया गया । विचारण न्यायालय में अभियुक्तों ने उक्त कपड़े के गायब होने के बारे में अपनी सफाई देते हुए कहा कि वह कपड़ा पुराना और जीर्ण होने के कारण उसमें दीमक लग गई थी, अतः उसे फेंक देना आवश्यक हो गया था । परन्तु उच्च न्यायालय ने अभियुक्तों (अपीलार्थियों) की इस दलील को इस आधार पर अस्वीकार कर दिया कि इस सम्बन्ध में न तो कम्पनी के लेखे या स्टॉक-रजिस्टर में कोई प्रविष्टि थी और न वस्त्र-आयुक्त से इस सम्बन्ध में किसी प्रकार का पत्र-व्यवहार किये जाने का रिकार्ड था, अतः अभियुक्तों का तर्क मनगढन्त तथा निराधार था ।

उच्चतम न्यायालय में अपील की सुनवाई के समय प्रथम अभियुक्त की ओर से यह दलील पेश की गई कि उसने सन् 1950 से ही बम्बई छोड़ दी थी तथा उसी समय से वह अहमदाबाद में आकर एक फैक्ट्री में काम करने लगा था और बाद में उसके विरुद्ध दिवाला-कार्यवाही के कारण वह बम्बई की मिल के कार्यालय में उपस्थित होने में असमर्थ था, अतः वह उक्त कपड़े के दुर्विनियोग के लिए उत्तरदायी नहीं था । परन्तु उच्चतम न्यायालय ने अभियुक्त के इस तर्क को अस्वीकार करते हुए अभिनिर्धारित किया कि धारा 34 के अधीन दायित्व विनिश्चित करते समय अपराध कार्य में अभियुक्त की शारीरिक रूप से उपस्थिति तथा भागीदारी सदैव आवश्यक नहीं होती है ।

न्यायमूर्ति पी० वी० राजेन्द्रगडकर (Justice P.V. Rajendragadkar) के शब्दों में, शारीरिक हिंसा के अपराधों के लिए संयुक्त दायित्व स्थापित करने के लिए घटनास्थल पर अभियुक्तों की शारीरिक उपस्थिति आवश्यक हो सकती है, परन्तु यह उन अपराधों के लिए आवश्यक प्रतीत नहीं होती है जहाँ अपराध का स्वरूप ऐसा है कि उसमें विभिन्न कार्य शामिल हों जो अलग-अलग समय तथा अलग-अलग जगहों पर किये जा सकते हों ।

अतः अभियुक्त की अपील खारिज करते हुए उच्चतम न्यायालय ने उसकी धारा 34 के साथ पठित धारा 409 के अन्तर्गत की गई दोषसिद्धि न्यायोचित ठहराई ।

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