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धारा 34 के सन्दर्भ में सिद्धि का भार | Burden of Proof in Section 34 IPC

धारा 34 के सन्दर्भ में सिद्धि का भार | Burden of Proof in Section 34 IPC धारा 34 लागू की जाने के लिए यह निश्चायक रूप से साबित किया जाना ...

धारा 34 के सन्दर्भ में सिद्धि का भार | Burden of Proof in Section 34 IPC


धारा 34 लागू की जाने के लिए यह निश्चायक रूप से साबित किया जाना आवश्यक है कि अपराध कृत्य अनेक व्यक्तियों द्वारा किसी सामान्य आशय को अग्रसर करने के इरादे से किया गया था ।

तात्पर्य यह है कि अभियोजन पक्ष द्वारा यह साबित किया जाना चाहिए कि अपराध में सहभागी सभी अभियुक्तों का उस अपराध को कारित करने में सामान्य आशय विद्यमान था, भले ही वह कृत्य उनमें से किसी एक या अधिक अभियुक्तों ने कार्यान्वित किया हो । इस सन्दर्भ में निम्नलिखित वादों का उल्लेख करना भी सुसंगत होगा –

गुप्तेश्वर नाथ ओझा बनाम बिहार राज्य (सन 1986)( Gupteshwar Nath Ojha Vs State of Bihar (1986)) के मामले में अपीलार्थी अपराध की घटना स्थल पर मौजूद थे तथा मृतक को पीटे जाने के पक्ष में जोर-जोर से चिल्ला रहे थे, परन्तु पीटने के कृत्य में उनकी कोई भागीदारी नहीं थी । वे अन्य व्यक्तियों को मृतक पर हमला करने के लिए निर्देश दे रहे थे । उच्चतम न्यायालय द्वारा इसे अपीलार्थियों का धारा 34 के अन्तर्गत 'सामान्य आशय' में शामिल होना माना गया तथा विनिश्चित किया गया कि इस मामले के तथ्यों तथा परिस्थितियों को देखते हुए यह परोक्षतः निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है कि उनका कथित अपराध-कृत्य में सामान्य आशय विद्यमान था भले ही वह कृत्य किसी एक या अन्य व्यक्ति द्वारा किया जा रहा था ।

अल्लाद नाईक बनाम राज्य (सन 1983 उड़िसा)( Allad Naik vs. State (1983 Orissa)) के मामले में यह विनिश्चित किया गया कि अभियुक्त के सामान्य आशय का अनुमान आपराधिक घटना की परिस्थितियों तथा घटना के समय तथा उसके पूर्व व पश्चात् अभियुक्त के आचरण के आधार पर लगाया जा सकता है । इस वाद में दोनों अभियुक्तों की मृतक से अनबन थी तथा दोनों ने मृतक को चुनौती देते हुए उस पर हमला किया था तथा घटना के समय इनमें से एक अभियुक्त द्वारा उकसाये जाने पर दूसरे ने मृतक को तीर से वार करके मार डाला । दूसरे दिन ये दोनों मृतक का धड़ से कटा हुआ सिर तथा रक्त से सनी हुई कुल्हाड़ी लेकर अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ जा रहे थे, जहाँ से पकड़े गए | अभियुक्तों ने उक्त रिश्तेदार के पास कुछ फसाने वाले (incriminating)कागजात भी रख छोड़े थे | अभियोजन के एक साक्षी ने इन दोनों अभियुक्तों को मानव-सिर जैसी कोई वस्तु ले जाते हुए घटना के तुरन्त बाद देखा था । इन सब परिस्थितियों के आधार पर न्यायालय ने विनिश्चित किया कि अभियुक्तों के आचरण से स्पष्ट था कि उनका मृतक को जान से मार डालने का सामान्य आशय था, अतः भा.द.सं. की धारा 302/34 के अन्तर्गत उनकी दोषसिद्धि उचित थी ।

कृष्णा बनाम महाराष्ट्र राज्य(सन 1963)( Krishna Vs State of Maharashtra (1963)) के मामले मे चार अभियुक्तों के विरुद्ध हत्या का आरोप था | इनमें से तीन को दोषमुक्त कर दिया गया तथा केवल चौथे को उच्च न्यायालय ने हत्या के अपराध के लिए धारा 302/34 (भा. द. सं.) के अन्तर्गत सिद्धदोष ठहराया । अपील में उच्चतम न्यायालय ने बम्बई उच्च न्यायालय के निर्णय को त्रुटिपूर्ण ठहराते हुए विनिश्चित किया कि चार में से तीन अभियुक्तों को दोषमुक्त किया जाना स्वयं में यह साबित करता है कि चौथे अभियुक्त का अकेले 'सामान्य आशय हो ही नहीं सकता, अत: उसे धारा 34 के आधार पर सिद्धदोष नहीं किया जा सकता है ।

हीरालाल मलिक बनाम बिहार राज्य(सन 1977)(Hiralal Malik vs State of Bihar (1977)) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि जहाँ कोई अपराध अनेक व्यक्तियों के संयुक्त कार्य के परिणामस्वरूप घटित हुआ हो वहाँ प्रत्येक व्यक्ति पर आन्वयिक आपराधिक दायित्व होगा । परन्तु इस दायित्व की मात्रा अपराध के घातक परिणाम पर आधारित न होकर प्रत्येक अपराधी की उस कृत्य में भागीदारी तथा विद्यमान परिस्थितियों आदि पर निर्भर करेगी । अभियुक्त का आपराधिक दायित्व निर्धारित करते समय न्यायालय को इस बात पर विशेष ध्यान देना चाहिए कि अपराध-कार्य में प्रत्येक अभियुक्त की व्यक्तिगत रूप से किस सीमा तक भागीदारी रही है और उसकी आयु तथा अपराध के सम्भावित दुष्परिणामों का अनुमान लगाने की क्षमता का स्तर क्या था ।

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