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महात्मा गांधी का मुकदमा | Mahatma Gandhi's Case

  महात्मा गांधी का मुकदमा | Mahatma Gandhi's Case महात्मा गांधी और यंग इंडिया के प्रकाशक शंकरलाल बैंकर को पत्र में अंग्रेजों के खिल...

 महात्मा गांधी का मुकदमा | Mahatma Gandhi's Case


महात्मा गांधी और यंग इंडिया के प्रकाशक शंकरलाल बैंकर को पत्र में अंग्रेजों के खिलाफ भड़काने वाले चार लेखों के लिए, सन् १९२२ में, भारतीय दंड संहिता की धारा 124-ए के अंतर्गत मुकदमा चलाकर दंडित किया गया था । यह ऐसा पहला मुकदमा था, जिसका संबंध भारतीय असहयोग आंदोलन की वैधता और नैतिकता से था ।
 
गुजरात उच्च न्यायालय के माननीय प्रधान न्यायाधीश जे.एम. शेलेट ने इस मुकदमे के बारे में लिखा था : "सुकरात के मुकदमे को छोड़कर पूरे मानव इतिहास में शायद ही कोई ऐसा मुकदमा होगा, जिसने गांधीजी के मुकदमे की तरह इतना तहलका मचाया हो और मानव जीवन पर इतना गहरा प्रभाव डाला हो । नैतिकता बनाम न्याय जैसे विषय को उठाने के कारण यह स्वाभाविक ही है कि यह मुकदमा विषय की सादृश्यता के कारण उस मुकदमे की याद दिलाए।"

"सुकरात और गांधीजी द्वारा उन पर मुकदमा चलाने वाले ट्रिब्यूनलों के प्रति अपनाये गये रवैये में एक समानता यह है कि दोनों ने सत्य को कानून से बड़ा दर्जा दिया और कानून तोड़ने के लिए सजा का स्वागत किया।"
गांधीजी मुकदमा सुकरात के मुकदमे जैसा है, क्योंकि उसका संबंध एक तरफ व्यक्ति की राज्य के प्रति निष्ठा से है तो दूसरी तरफ उस नैतिकता और कर्तव्य भावना से, जिसमें वह व्यक्ति आस्था रखता है ।
 

गवर्नर-इन-काउंसिल (परिषद्-राज्यपाल) ने 4 मार्च 1922 को गांधीजी और उनके प्रकाशक शंकरलाल घेलाभाई बैंकर के खिलाफ मुकदमा चलाने की स्वीकृति देते हुए निम्नलिखित आदेश दिया था :

अपराध प्रक्रिया संहिता, 1898 की धारा 196 के अनुपालन में गवर्नर-इन-काउंसिल एतद्वारा, अहमदाबाद पुलिस के जिला सुपरिंटेंडेंट, डैनियल हेली को यह अधिकार देते हैं कि वह भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 124-ए के अंतर्गत, अहमदाबाद से प्रकाशित होने वाले अखबार 'यंग इंडिया' के संपादक और प्रकाशक के रूप में, क्रमशः मोहनदास करमचंद गांधी और शंकरलाल घेलाभाई बैंकर के खिलाफ, निम्नलिखित लेखों के संदर्भ में शिकायत दर्ज करे, जो उक्त अखबार के निम्न अंकों में छपे हैं :

लेख राजद्रोह एक सद्गुण (15 जून, 1921), स्वामिभक्ति में हस्तक्षेप (29 सितंबर, 1921), एक पहेली (15 दिसंबर, 1921) और उसका हल नींद से जगाना (23 फरवरी, 1922)
 
महात्मा गांधी और शंकरलाल बैंकर को गिरफ्तार कर 11 मार्च, 1922 को अहमदाबाद के सहायक जिला मैजिस्ट्रेट श्री एल.एन. ब्राउन के सामने पेश किया गया । मोहनदास करमचंद गांधी, उम्र-53 वर्ष, जाति-हिंदू बनिया, पेशा-बुनकर और किसान, पता- साबरमती आश्रम, और शंकरलाल बेलाभाई बैंकर, उम्र-32 वर्ष, जाति- हिंदू बनिया, पेशा-भूस्वामी, पता, चौपाटी, बंबई, को मुकदमा चलाने के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा 124-ए के अंतर्गत सुबह 11 बजे अदालत में लाया गया ।

(मुकदमा नं. 1, 1922) अभियोक्ता पक्ष द्वारा मैजिस्ट्रेट के सामने अभियोग लगाने पर अभियुक्त महात्मा गांधी ने यह बयान दिया :

"मेरा नाम मोहनदास है । मेरे पिता का नाम करमचंद गांधी है । मेरी आयु 53 साल के लगभग है । मैं जाति से हिंदू बनिया हूं । मैं किसान और बुनकर हूं । मैं साबरमती आश्रम का रहने वाला हूँ ।“

प्रश्न : सारे प्रमाण तुम्हारी मौजूदगी में सुनाए गये हैं ।  क्या तुम्हें इस बारे में कुछ कहना है?

उत्तर : मैं केवल इतना कहना चाहता हूं कि उपयुक्त समय आने पर, सरकार के प्रति राजद्रोह के संदर्भ में, मैं अपना दोष स्वीकार करूंगा । यह सच है कि मैं 'यंग इंडिया' का संपादक हूं, मेरी मौजूदगी में पढ़े गये लेख मेरे ही द्वारा लिखे गये हैं और प्रकाशकों तथा मालिकों ने मुझे पूरे अखबार की नीति-निर्धारित करने की अनुमति दी हुई है । मैं बस, इतना ही कहूंगा।
 
अदालत की कार्यवाही में दर्ज किया गया कि अभियुक्त नं. 1 अपने बचाव के लिए किसी गवाह को बुलाना नहीं चाहता है और सेशन कोर्ट द्वारा बिना किसी विलंब के मुकदमा आगे चलाने पर उसे कोई आपत्ति नहीं है ।
 
अभियुक्त नं. 2 ने अपनी सफाई में किसी गवाह को बुलाने से इंकार किया और अदालत से मुकदमा जल्दी चलाने का अनुरोध किया । मैजिस्ट्रेट ने धारा 213 के अंतर्गत निम्नलिखित आदेश दिया :

"अभियुक्तों पर 'यंग इंडिया' में कुछ खास लेख प्रकाशित कर राजद्रोह भड़काने का अभियोग लगाया जाता है । अभियुक्त नं 1 इस अखबार का संपादक और अभियुक्त नं. 2 उसका प्रकाशक है । उन्होंने कहा है कि उपयुक्त समय आने पर वे इस अभियोग के लिए अपना अपराध स्वीकार करेंगे । मैं, एल.एन. ब्राउन, सहायक जिला मैजिस्ट्रेट, एतद्द्वारा, मोहनदास करमचंद गांधी, तुम पर यह अभियोग लगाता हूं : कि तुमने 'यंग इंडिया' के संपादक होते हुए, 29 सितंबर 1921, 15 दिसंबर 1921 और 23 फरवरी 1922 को अहमदाबाद में इस अभियोग के परिशिष्ट में दिये गये शब्दों को लिखा और इन लिखित शब्दों द्वारा महामहिम सम्राट या ब्रिटिश भारत में कानूनतः स्थापित सरकार के खिलाफ घृणा और तिरस्कार की भावना जगाई या जगाने का प्रयास किया और राजद्रोह भड़काया या भड़काने का प्रयास किया । भारतीय दंड संहिता की धारा 124-ए के अंतर्गत और सेशन कोर्ट के न्यायाधिकार के भीतर दंडनीय अपराध किया ।

और मैं तुम पर उक्त अदालत द्वारा उक्त अभियोग पर मुकदमा चलाने का निर्देश देता हूं । इसलिए मेरे पास इसके अलावा दूसरा विकल्प नहीं है कि तुम्हें मुकदमे के लिए सेशन कोर्ट के सुपुर्द कर दिया जाये, क्योंकि अभियोग इतना गंभीर है कि उसे मेरे द्वारा निपटाना संभव नहीं है। मुकदमे को भारतीय दंड संहिता की धारा 124-ए के अंतर्गत 'अपराध स्वीकार किया' के अभिवचन पर अहमदाबाद के सेशन कोर्ट के सुपुर्द कर दिया गया ।
 
गांधीजी और बैंकर को तब साबरमती जेल ले जाया गया, जहां उन्हें 18 मार्च तक, सेशन मुकदमे की सुनवाई शुरू होने तक रखा गया । देश भर के लोगों ने इस मुकदमे में दिलचस्पी ली और दूर-दूर से वे उसे देखने आये । अदालत के कटघरे में अभियुक्त का व्यक्तित्व, एक महात्मा और शिक्षक के रूप में विश्व पर उसका गहन प्रभाव, लगाये गये अभियोग की प्रकृति, मुकदमे से संबंधित मुद्दे, देश की तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियां और भारत के भविष्य पर उसकी संभावित प्रतिक्रियाएं-इन तमाम बातों ने मुकदमे को महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक बना दिया था ।
 
मुकदमे का आरंभ सेशन जज, आई.सौ. एस., आर.एस. ब्रूमफील्ड एस्कॉयर के समक्ष, दोपहर 12 बजे हुआ । 12 बजे से 5 मिनट पहले अभियुक्तों को अदालत की हिरासत में लाया गया । श्रीमती सरोजनी नायडू ने उनके आगमन को इन शब्दों में व्यक्त किया है - "कानून की नजर में एक अभियुक्त और अपराधी । फिर भी उस क्षण पूरी अदालत स्वतः अपना सम्मान दिखाने को उठ खड़ी हुई, जब खुरदरे अल्प-अधोवस्त्र पहने एक कृशकाय, शांत, अदम्य व्यक्तित्व अर्थात् महात्मा गांधी ने अपने निष्ठावान शिष्यों और सह-अभियुक्त शंकरलाल बैंकर के साथ वहां प्रवेश किया ।
 
“तो तुम इसलिए मेरे पास बैठी हो, जिससे कि मेरे परास्त हो जाने पर सहारा दे सको।" मजाक करते हुए वह अपनी वही खुशगवार हंसी हंस दिये, जो अपनी गहराइयों में सारे विश्व के बचपन के प्रफुल्ल उल्लास को छिपाए प्रतीत होती थी । अपने आसपास बैठे उन पुरुषों महिलाओं के जाने-पहचाने चेहरे देखकर, जो अपना प्यार देने के लिए दूर-दूर से आये थे, उन्होंने कहा-"यह अदालत नहीं, परिवारजनों की बैठक लग रही है । "
 
सेशन जज ने उन पर ये आरोप लगाये "कि, मोहनदास करमचंद गांधी, तुमने 'यंग इंडिया' के संपादक होते हुए, 29 सितंबर 1921, 15 सितंबर 1921 और 23 फरवरी 1922 को, अहमदाबाद में इस अभियोग के परिशिष्ट में दिये गये शब्दों को लिखा और इन लिखित शब्दों द्वारा महामहिम सम्राट या ब्रिटिश भारत में कानूनतः स्थापित सरकार के खिलाफ घृणा और तिरस्कार की भावना जगाई या जगाने का प्रयास किया और राजद्रोह भड़काया या भड़काने का प्रयास किया । शंकरलाल घेलाभाई बैंकर, तुमने 'यंग इंडिया' के प्रकाशक होते हुए, 29 सितंबर 1921, 15 सितंबर 1921 और 23 फरवरी 1922 को, अहमदाबाद में इस अभियोग के परिशिष्ट में दिये गये शब्दों को प्रकाशित किया और इन लिखित शब्दों द्वारा महामहिम सम्राट या ब्रिटिश भारत में कानूनतः स्थापित सरकार के खिलाफ घृणा और तिरस्कार की भावना जगाई या जगाने का प्रयास किया और राजद्रोह भड़काया या भड़काने का प्रयास किया । इस तरह तुम दोनों ने भारतीय दंड संहिता की धारा 124-ए के अंतर्गत और इस अदालत के न्यायाधिकार के भीतर दंडनीय अपराध किया।"
 
अदालत ने जब अभियुक्तों को यह पूछने के लिए बुलाया कि क्या वे अपराध स्वीकार करते हैं, तो गांधी ने कहा-"मैं अभियोग के हर विषय में अपना अपराध स्वीकार करता हूं। मैं सिर्फ यह कहना चाहता हूं कि अभियोग पत्र में सम्राट का नाम, मेरी राय में बड़े मर्यादित ढंग से हटा दिया गया है । एडवोकेट जनरल (विशेष सरकारी अभियोक्ता सर टी. स्ट्रेंगमैन) ने अदालत से इन अभिवचनों को अभिशंसित न करने और मुकदमे को जारी रखने को कहा । बहरहाल, अदालत ने अपराध मान लेने के अभिवचनों को स्वीकार किया और सरकारी अभियोक्ता से कहा कि अगर वह दंड के सवाल पर कुछ कहना चाहते हैं, तो कहें । सर टी. स्ट्रेंगमैन ने निम्नलिखित वक्तव्य दिया : "मेरा मानना है कि ये लेख बरसों से चलाए जा रहे एक संगठित मुहिम का हिस्सा हैं। दूसरे, श्री गांधी एक शिक्षित व्यक्ति और सम्मानित नेता हैं और यह बात इस मुहिम को और भी हानिकारक बनाती है । अदालत को इस मुहिम के अपरिहार्य परिणामों पर भी गौर करना चाहिए, जो हाल की इन घटनाओं में भी उभर कर आए हैं । अहिंसा के दिखावे करना व्यर्थ है । अदालत को इस बात पर विचार करना चाहिए कि क्या ऐसे अपराधों पर कड़ी सजा नहीं दी जानी चाहिए? दूसरे अभियुक्त का अपराध इतना घोर नहीं, फिर भी काफी गंभीर है । उसके मामले में भारी जुर्माना किया जाना चाहिए।"


गांधीजी से जब कुछ कहने को कहा गया तो तो उन्होंने अविस्मरणीय शब्द कहे : अपना बयान पढ़ने से पहले मैं यह कहना चाहता हूं कि मेरे बारे में एडवोकेट जनरल ने जो कुछ भी कहा है, मैं उसका समर्थन करता हूं । मैं स्वीकार करता हूं कि राजद्रोह का उपदेश देना मेरा सर्वाधिक प्रिय शौक बन चुका है और उसकी शुरुआत दी गयी तिथि से बहुत पहले ही हो गयी थी। मैं बंबई, मद्रास और दूसरे स्थानों पर हुए हिंसा के अपराधों का उत्तरदायित्व स्वीकार करता हूं । यह सच है कि मुझे अपने कर्म के परिणामों को जानना चाहिए था । मैं मानता हूं कि मैं आग से खेल रहा था, लेकिन अगर मुझे रिहा कर दिया जाता है तो मैं यह काम फिर करूंगा । मैं अपने लोगों के प्रति अपने कर्तव्य के रूप में ऐसा करना जरूरी समझता हूं । मैं आपकी दया नहीं चाहता । अदालत को अपना कर्तव्य निभाना चाहिए । मेरे सार्वजनिक जीवन का आरंभ दक्षिण अफ्रीका में 1893 की संकटकालीन परिस्थितियों में हुआ । उस देश में ब्रिटिश सत्ता के साथ मेरा पहला परिचय सुखद नहीं था । मैंने यह अनुभव किया कि एक व्यक्ति और एक भारतीय के रूप में मेरे कोई अधिकार नहीं थे; यह कहना ज्यादा सही होगा कि मैंने अनुभव किया कि एक व्यक्ति के रूप में मेरे कोई अधिकार नहीं थे क्योंकि मैं एक भारतीय था ।"
 
तमाम घटनाओं का क्रमबद्ध खाका खींचने के बाद उन्होंने कहा : "मेरा विश्वास है कि मैंने भारत और इंग्लैंड के प्रति कड़ा उपकार किया है, जो असहयोग के माध्यम से इस अस्वाभाविक स्थिति से, जिसमें हम दोनों रह रहे हैं, निकलने का रास्ता बताया है । मेरी विनम्र राय में बुरे के साथ अहसयोग भी उतना ही जरूरी है, जितना कि अच्छे के साथ सहयोग । लेकिन कुछ समय पहले असहयोग को दुष्ट के प्रति हिंसा के रूप में जानबूझकर अभिव्यक्त किया गया है । मैं अपने देशवासियों को सिखाना चाहता हूं कि हिंसात्मक असहयोग दुष्टता को सिर्फ बढ़ाता ही है और दुष्टता को सिर्फ हिंसा से ही कायम रखा जा सकता है । दुष्टता के प्रति अपना समर्थन हटा लेने के लिए हिंसा से पूर्ण निवृत्ति की जरूरत होती है । अहिंसा का अर्थ है-दुष्टता के साथ असहयोग के दंड के प्रति आत्मसमर्पण ।
 
अतः अपने इस कृत्य के लिए, जो कानून की नजरों में जानबूझकर किया गया अपराध है और जो मेरी नजरों में एक नागरिक का उच्चतम दायित्व है, मैं खुशी से कड़े से कड़े दंड को आमंत्रित करता हूं और उसके समक्ष पूर्ण आत्मसमर्पण करता हूं, और न्यायाधीश महोदय, आपके लिए एकमात्र रास्ता यही है कि या तो आप अपने पद से त्यागपत्र दे दें, स्वयं को दुष्टता से विलग कर लें, अगर आपको लगता है कि आपको जिस कानून को लागू करना है, वह दुष्ट है और असलियत में में निर्दोष हूं, या फिर अगर आप सोचते हैं कि यह व्यवस्था और यह कानून इस देश के लोगों की भलाई के लिए है और मेरे क्रियाकलाप जन-कल्याण में बाधक हैं तो मुझे कड़ी से कड़ी सजा दें ।"
 
उसी समय के एक लेखक एन.के. प्रभु ने लिखा है कि महात्मा गांधी द्वारा बयान पढ़ते वक्त और पढ़ चुकने के कुछ क्षण बाद तक उस कक्ष में जैसा माहौल था, उसे व्यक्त करना असंभव है । वहां मौजूद हर व्यक्ति उनके एक-एक शब्द को अधीरता से सुन रहा था । न्यायाधीश, एडवोकेट जनरल, सैन्य अफसर और राजनीतिक नेता-सभी इस यादगार बयान को कान लगाकर ध्यान से सुन रहे थे । गांधीजी ने उसे पढ़ने में 15 मिनट लगाये । जैसे-जैसे वह उसे पढ़ते जा रहे थे, प्रतिक्षण कक्ष के माहौल को बदलते हुए महसूस किया जा सकता था । उन्होंने लिखा-"वह एक उस्ताद की ऐतिहासिक प्रस्तुति थी- उदात्त आत्मस्वीकृतियां, युक्तियुक्त तर्क, उत्कृष्ट भाषणशैली, उच्च विचार और प्रेरणादायक लहजा -इन तमाम बातों ने मिलकर न्यायाधीश और एडवोकेट जनरल समेत सभी लोगों पर एकदम प्रभाव डाला । एक क्षण के लिए तो सभी अचंभे में थे कि मुकदमा किस पर चलाया जा रहा है-एक ब्रिटिश न्यायाधीश के सामने खड़े महात्मा गांधी पर या ईश्वर और इंसानियत के कठघरे में खड़ी ब्रिटिश सरकार पर । महात्मा गांधी ने वक्तव्य पढ़ना खत्म किया तो कुछ क्षणों के लिए पूरे कक्ष में एकदम चुप्पी छा गयी । कोई फुसफुसाहट तक नहीं । एक सूई भी गिरती, तो उसकी आवाज आती।"
 
एडवोकेट जनस्ल ने तदुपरांत अदालत को बताया कि अपराध प्रक्रिया संहिता की धारा 27-बी के अंतर्गत अदालत अभियुक्तों को उनके अभिवचनों के आधार पर अनुशासित कर सकती है या मुकदमे को जारी रख सकती है । धारा 124-ए के अनुसार आम अभियुक्त अपना अपराध स्वीकार करता है, तो उसके इस अभिवचन को दर्ज किया जाये और उसे अनुशंसित किया जाये।" अतः न्यायाधीश के लिए मुकदमा आगे चलाना जरूरी था, क्योंकि पहले तो ये अभियोग बहुत गंभीर थे, दूसरे जनहित में यह वांछनीय था कि अभियोगों की पूरी जांच पड़ताल की जाए । अभियुक्तों द्वारा अपराध स्वीकार कर लेने भर से सजा नहीं सुनाई जा सकती थी ।
 
जहां तक सजा का सवाल था, महात्मा गांधी द्वारा एक बार अपना अपराध स्वीकार कर लेने के बाद न्यायाधीश सजा सुना सकता था । लेकिन उससे पहले वह एडवोकेट जनरल को सुनना चाहता था, जिसने अभियुक्त के उक्त लेखों के इक्का-दुक्का प्रकरणों को नहीं, बल्कि 'यंग इंडिया' द्वारा 1921 में छेड़े गये योजनाबद्ध मुहिम का जिम्मेदार ठहराया था ।
 
अदालत में फिर उक्त समाचार पत्र में से 8 जून के कुछ अंश पढ़े गये, जिनमें असहयोगी के दायित्व की चर्चा की गयी थी और यह दायित्व था मौजूदा सरकार के खिलाफ विद्रोह का उपदेश देना और देश को सविनय अवज्ञा के लिए तैयार करना । फिर उसी क्रम में 28 जुलाई का एक लेख था-'राजद्रोह एक सद्गुण' या ऐसा ही कुछ इसी अंक में 28 जुलाई का एक और लेख था, जिसमें कहा गया था कि "हमें इस व्यवस्था को नष्ट कर देना है"। फिर 30 सितंबर का एक और लेख था-'पंजाब अभियोजन', जिसमें कहा गया था कि एक असहयोगी को अपने नाम के अनुरूप विद्रोह का उपेदश देना चाहिए ।
 
ये लेख 'स्वामिभक्ति में हस्तक्षेप' से पहले लिखे गये थे और इनकी ओर बंबई सरकार ने संकेत किया था ।
 
एडवोकेट जनरल ने यह भी कहा कि अभियुक्त एक उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्ति और अपनी रचनाओं के कारण एक लोकप्रिय नेता है । अतः ये लेख ज्यादा हानिकारक हैं, क्योंकि उनका लेखक कोई गुमनाम व्यक्ति नहीं, बल्कि एक शिक्षित व्यक्ति है । एडवोकेट जनरल ने अदालत को इन लेखों में प्रस्तावित मुहिम की प्रकृति पर विचार करने को कहा, जिसके परिणाम पिछले नवंबर में, बंबई और चौरी-चौरा में स्पष्टतः सामने आये थे । हत्याएं हुई थीं, संपत्ति नष्ट की गयी थी और अनेक लोगों को तकलीफ और दुर्दशा का सामना करना पड़ा था । एडवोकेट जनरल ने कहा कि हालांकि इन लेखों में अहिंसा की हिमायत की गयी थी, लेकिन उसका क्या फायदा, जबकि गांधी सरकार के विरुद्ध राजद्रोह की शिक्षा देते थे या उसे उखाड़ फेकने के लिए लोगों को खुले आम भड़काते थे ।
 
एडवोकेट जनरल ने अदालत से सभी पारिस्थितिक प्रमाणों पर गौर करने का आग्रह किया । वहां उपस्थित सर्वाधिक दुखी व्यक्ति शायद स्वयं न्यायाधीश ही थे । उन्होंने अपनी भावनाओं को संयम किया, सारी शक्ति संचित की और गला खंखारकर अपने मौखिक निर्णय को सुविचारित और मर्यादित शब्दों में व्यक्त किया । इससे बेहतर अपना कर्तव्य भला और कौन निभा सकता था । अपने पद की गरिमा और अपने सामने खड़े महान कैदी के प्रति यथोचित शिष्टाचार का सामंजस्य करना कोई आसान काम न था । लेकिन उन्होंने जिस ढंग से ऐसा किया, वह प्रशंसनीय है, बेशक उसके सामने खड़ा कैदी बिलकुल अलग श्रेणी का था - ऐसा कोई व्यक्ति न इससे पहले उनके सामने आया था और न भविष्य में आने की संभावना थी । इस तथ्य ने उनके पूरे भाषण और व्यवहार को निर्धारित किया । अपने निर्णय के अंत पर पहुंचकर तो उन्हें शब्द नहीं मिल रहे थे और उन्होंने 6 वर्षों के साधारण कारावास की सजा सुनाई ।
 
श्रीमती नायडू ने उन्हें 'एक अत्युत्तम न्यायाधीश' कहा । एक ऐसा न्यायाधीश, जो अपनी निर्भीकता और कर्तव्यनिष्ठा के लिए, अपने यथोचित शिष्टाचार के लिए, एक अपूर्व अवसर की अपनी सही समझ के लिए और एक अद्वितीय व्यक्तित्व के प्रति अपनी विमल प्रशस्ति के लिए प्रशंसनीय है ।
भारत के आपराधिक मुकदमों के इतिहास में यह ऐसा मुकदमा था, जिसमें प्रतिवादी ने अपने बचाव के लिए एक कौड़ी तक खर्च नहीं की थी । उसमें न तो कोई बचाव पक्ष का वकील था, न न्यायिक परामर्श, लेकिन अभियुक्त ने भारत के नैतिक और न्यायिक क्षितिज में शाश्वत गौरव प्राप्त किया था ।

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