धारा ४ मे क्षेत्रातीत अधिकारिता । Extra- T erritorial Jurisdiction of Section 4 क्षेत्रातील अधिकारिता के अन्तर्गत भारतीय न्यायालयों को भारत ...
धारा ४ मे क्षेत्रातीत अधिकारिता । Extra-Territorial Jurisdiction of Section 4
क्षेत्रातील अधिकारिता के अन्तर्गत भारतीय न्यायालयों को भारत से बाहर किये गए उन अपराधों पर मुकदमा चलाने का अधिकार है, जो (क) भूमि पर, (ख) बीच समुद्र में तथा (ग) वायुयान में किये गये हों ।
भारत के बाहर भूमि पर कारित अपराध
भारतीय
दण्ड संहिता की धारा 3 व 4
तथा दण्ड प्रक्रिया संहिता,
1974 की धारा 188 के अन्तर्गत भारतीय न्यायालयों को भारत से
बाहर किये गए अपराधों की जॉच या विचारण के लिए अधिकारिता प्रदान की गई है । परन्तु
ऐसी जाँच या विचारण के लिए केन्द्रीय सरकार की अनुमति ली जानी आवश्यक होती है ।
इस
सन्दर्भ में विनायक दामोदर सावरकर का मुकदमा उल्लेखनीय है । इस प्रकरण में
अभियुक्त सावरकर को विचारण हेतु लन्दन से बम्बई लाया जा रहा था । मौका पाकर वे
रास्ते में मासिलिस (फ्रांस) में भाग निकले, परन्तु उन्हें ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा फिर
से गिरफ्तार कर लिया गया तथा बम्बई लाया गया । नासिक के विशिष्ट दण्डाधिकारी की
अदालत में उन पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया गया । सावरकर का तर्क था कि फ्रांस की
भूमि से उन्हें ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत लाया जाना और भारत में उनके विरुद्ध
मुकदमा चलाया जाना न्यायसंगत नहीं था । लेकिन अदालत ने उनकी यह दलील स्वीकार नहीं
की और दण्ड संहिता की धारा 4 के
अधीन न्यायालय को उनके विचारण की अधिकारिता प्राप्त है ।
एक
पाकिस्तानी नागरिक मुबारक अली के मामले में आरोपी के विरुद्ध कपट तथा
धोखाधड़ी के लिए बम्बई के न्यायालय में विचारण चल रहा था । आरोपी मौका पाकर
पाकिस्तान भाग गया जहाँ से वह इंग्लैण्ड पलायन कर गया । भारत सरकार आरोपी को
प्रत्यर्पित कराने में सफल रही क्योंकि जिस समय आरोपी बम्बई की जेल मे था, उसके विरुद्ध एक व्यक्ति छल का शिकायत लाया था और
आरोपी के विरुद्ध वारंट जारी किया जा चुका था । अतः आरोपी की यह दलील अस्वीकार कर
दी गई कि पाकिस्तान का नागरिक होने के नाते भारत द्वारा उसका प्रत्यर्पण न्यायसंगत
नहीं था ।
सूचासिंह
के मामले (1963) में आरोपी सूचासिंह ने पंजाब के
तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रतापसिंह कैरो की हत्या कर दी तथा वह हत्या करने के बाद
नेपाल भाग गया । सामान्यतया यह समझा जाता था कि यह हत्या राजनैतिक कारणों से की गई
थी । भारत द्वारा नेपाल से सूचासिंह के प्रत्यर्पण की प्रार्थना की जाने पर नेपाल
ने उसे स्वीकार कर लिया तथा सूचासिंह को भारत सरकार को सौंप दिया ।
तत्पश्चात्
भारतीय न्यायालय में सूचासिंह का विचारण किया गया तथा उसे दण्डित किया गया ।
इस मामले में विवाद प्रश्न यह था कि यह एक
राजनैतिक अपराध होने के कारण नेपाल सरकार द्वारा सूचासिंह को राजनैतिक शरण दी जानी
चाहिए थी न कि उसका भारत सरकार को प्रत्यर्पण |
न्यायालय
ने यह विनिश्चित किया कि यह नेपाल सरकार के विवेक का प्रश्न था कि वह सम्बन्धित अपराध
को राजनैतिक अपराध माने या उसे हत्या का दाण्डिक अपराध मानते हुए अपराधी का
प्रत्यर्पण स्वीकार करे । इसके अलावा भारत तथा नेपाल के बीच प्रत्यर्पण संधि होने
के कारण सूचासिंह का प्रत्यर्पण पूर्णतः वैध एवं न्यायसंगत था ।
नारंग
भाइयों के प्रकरण (1976) में आरोपी मनोहर लाल नारंग तथा उसके भाई ओम
प्रकाश के विरुद्ध हरियाणा में कुरुक्षेत्र के निकट स्थित अमीन स्तम्भ की चोरी
करने, धोखाधड़ी तथा तस्करी आदि के आरोप थे । ये आरोपी
भागकर इंग्लैण्ड चले गए । फलत: भारत की प्रार्थना पर उन्हें लंदन में गिरफ्तार
करके उनके विरुद्ध प्रत्यर्पण की कार्यवाही प्रारम्भ की गई । जाँच के बाद अक्टूबर 1976 में लंदन के मजिस्ट्रेट ने भारत के प्रार्थना
स्वीकार करते हुए आरोपियों के प्रत्यर्पण के आदेश जारी किये । चोरी के अमीन स्तम्भ
लगभग 25000 पौंड मूल्य के थे,
जिन्हें लंदन की एक दुकान से बरामद किया गया था
। आरोपी मनोहर लाल नारंग ने यह दलील प्रस्तुत की कि यह दूतावास का वित्तीय सलाहकार
के रूप में कार्यरत होने के कारण उसे आपराधिक कार्यवाही से मुक्ति प्राप्त थी । अतः
उसकी गिरफ्तारी अवैध थी । परन्तु न्यायालय ने आरोपी की यह दलील अस्वीकार करते हुए उसे
दण्डित किया ।
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