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सुरेंद्रनाथ बनर्जी का मुकदमा | Surendranath Banerjee's Case

  सुरेंद्रनाथ बनर्जी का मुकदमा | Surendranath Banerjee's Case 26 जुलाई 1876 को सुरेंद्रनाथ बनर्जी ( Surendranath Banerjee ) ने इंड...


 

सुरेंद्रनाथ बनर्जी का मुकदमा | Surendranath Banerjee's Case

26 जुलाई 1876 को सुरेंद्रनाथ बनर्जी (Surendranath Banerjee) ने इंडियन एसोशिएशन (Indian Association) की स्थापना की, जिसका उद्देश्य एक अखिल-भारतीय राजनीतिक आंदोलन के केंद्र का निर्माण था । उन्होंने लोगों में एकता और भाईचारे की भावना जगाने के लिए समस्त भारत का भ्रमण किया । सुरेन्द्रनाथ की लोकप्रियता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब अदालत की अवमानना के आरोप में उन्हें कारावास की सजा सुनायी गयी, तो बंगाल में पूर्ण हड़ताल की गयी ।

हुआ यह था कि कलकत्ता हाई कोर्ट (Calcutta High Court) के मुख्य न्यायाधीश ने एक हिंदू को आदेश दिया था कि वह अपने घर की एक मूर्ति अदालत में पेश करे और सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने अपने अखबार 'द बंगाली' में इस आदेश की आलोचना की थी । सुरेन्द्रनाथ बनर्जी की भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में भी मार्गदर्शक भूमिका थी । वह दो बार उसके अध्यक्ष बने-पहले 1895 में, फिर 1902 में। इसमें संदेह नहीं कि सुरेन्द्रनाथ बनर्जी और बंगाल के उनके साथियों के प्रयत्नो के कारण ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (Indian National Congress) को, उसके दूसरे अधिवेशन के बाद बंगालियों की कार्यवाही माना जाने लगा ।

उन्होंने सन् 1905 के 'बंग-भंग आंदोलन' और परवर्ती 'स्वदेशी' और 'बायकाट' आंदोलनों में भी भाग लिया । 'बरीसाल कांफ्रेंस' का नेतृत्व करने के बांद उन्हें बंगाल का बेताज बादशाह माना जाने लगा था । उन्होंने लार्ड मारले(Lord Marle) द्वारा बंगाल के विभाजन के 'निश्चित तथ्य' को अनिश्चितता में बदल दिया था । सन् 1906 उनके राजनीतिक जीवन का चरमोत्कर्ष था ।

सुरेन्द्रनाथ एक शिक्षाविद् और पत्रकार थे । उनके संपादन में निकलने वाला पत्र 'द बंगाली' भारतीय पत्रकारिता में ऊंचा स्थान रखता था और उसने भारतीय राष्ट्रीयता के विकास में महत्वपूर्ण योगदान प्रदान किया । वह कलकत्ता नगरपालिका के सदस्य (1876-99) भी रहे, लेकिन नगरपालिका के लोकप्रिय चरित्र को नष्ट कर देने वाली लार्ड कर्जन की नीति के विरोध में उन्होंने त्यागपत्र दे दिया था । वह कई बार भारतीय विधान परिषद् (इंडियन लेजिस्लेटिव काउंसिल) (Indian Legislative Council) के सदस्य भी रहे । अपने प्रगतिशील विचारों के कारण उन्होंने विधवा-विवाह और कन्याओं की विवाह योग्य आयु-सीमा बढ़ाने की भी वकालत की ।

सुरेंद्रनाथ बनर्जी पर चलाया गया मुकदमा और निर्णय

एक समय था जब सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का नाम भारत के घर-घर में जाना जाता था । वह अंग्रेजी और बांग्ला दोनों भाषाओं के प्रकांड पंडित और विख्यात वक्ता थे और उनकी तुलना यूनान के  डिमोसथीन्स और रोम के सिसरो से की जाती थी ।

सुरेन्द्रनाथ बनर्जी एक अंगेजी पत्र के संपादक थे, जिसमें उन्होंने 28 अप्रैल 1883 को एक संपादकीय लिखा। यह लेख 'ब्रह्मो पब्लिक ओपीनियन' (Brahmo Public Opinion) में प्रकाशित एक रिपोर्ट पर आधारित था, जिसमें कहा गया था कि कलकत्ता उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश श्री नौरिस (Judge Mr. Norris) ने किसी मुकदमे में एक हिंदू अभियुक्त को यह आदेश दिया कि वह अपने कुटुंब के एक सालिग्राम को पहचान के लिए अदालत में लाए । न्यायाधीश नौरिस ने पहले भी कई बार, कई मुकदमों में हिंदुओं के प्रति पूर्वाग्रह सहित निर्णय दिये थे । इस रिपोर्ट ने बंगाल के अधिकतर लोगों की भावनाओं को भड़का दिया था । अपनी निर्भीकता और स्पष्टवादिता के लिए प्रसिद्ध सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने न्यायाधीश के इस आचारण की कड़ी आलोचना करते हुए एक लेख लिखा ।

उन्होंने लिखा :

"उच्च न्यायालय के न्यायाधीश अब तक समाज के व्यापक सम्मान के अधिकारी रहे हैं । निस्संदेह, उनसे कई बार चूक हुई है और अपने कर्तव्यपालन में वे प्रायः घोर असफल रहे हैं । फिर भी, इन गलतियों का कारण कभी भी आवेशपूर्ण आचरण या शालीनता और सावधानी का परित्याग नहीं रहा था । बहरहाल, अब हमारे बीच एक ऐसे न्यायाधीश उपस्थित हैं, जो अगर जेफरीज और स्क्राग्स की याद नहीं दिलाते, तो भी उच्च न्यायालय में अपनी कार्यावधि के छोटे से काल में हमें यह अवश्य दिखाते हैं कि अपने उच्च और सम्मानित पद के लिए वे कितने अयोग्य हैं, और कैसे स्वभाव से ही उन गौरवपूर्ण परंपराओं को निभाने में अक्षम हैं, जो देश की सर्वोच्च अदालत के न्यायाधीश के पद की गरिमा के अनुरूप हों । पत्र के इन स्तंभों में हम लगातार न्यायाधीश श्री नौरिस के क्रियाकलापों का उल्लेख करते रहें हैं, लेकिन स्थितियां अब अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच गयी हैं । हम आपका ध्यान इन तथ्यों की ओर दिलाना चाहते हैं, जो एक साथी पत्र के पन्नों में छपे हैं । 'ब्रह्मो पब्लिक ओपीनियन' हमारा आधार है और तथ्य यूं हैं : न्यायाधीश श्री नौरिस ने हुगली में आग भड़काने का निश्चय कर लिया है । एक सालिग्राम को पहचान के लिए अदालत में लाना माननीय न्यायाधीश की 'जबर्दस्ती' की अगली कड़ी है । भूतपूर्व सर्वोच्च न्यायालय और वर्तमान कलकत्ता उच्च न्यायालय दोनों में हिंदू मूर्तियों के कब्जे से संबंधित कई मुकदमे आ चुके हैं लेकिन किसी हिंदू परिवार के अधिष्ठाता देवता को अदालत के अंदर घसीट लाने का सम्मान अब तक नहीं मिला था । हमारे कलकत्ता के डेनियल ने सालिग्राम को देखा-परखा और यह निष्कर्ष निकाला कि वह सौ साल पुराना नहीं हो सकता । इस प्रकार न्यायाधीश श्री नौरिस सिर्फ कानून और चिकित्सा के ही विद्वान नहीं, बल्कि हिंदू मूर्तियों के भी पारखी हैं । वह क्या नहीं हैं, बताना कठिन है । कलकत्ता के सनातनी हिंदू अपनी पारिवारिक मूर्तियों को अदालत में घसीट लाना सहन कर पायेंगे या नहीं, यह तो वे ही जानें, लेकिन हमें ऐसे कदम अवश्य उठाने होंगे जिससे न्याय के इस युवा, अनगढ़ विधाता की ऊटपटांग सनकों से छुटकारा पाया जा सके । "

इस लेख ने सिर्फ कलकत्ता में ही नहीं, बल्कि पूरे भारत में सनसनी फैला दी । उसने न केवल हिंदुओं की भावनाओं को आहत किया, बल्कि पूरी न्याय-बिरादरी में, विशेष रूप से अंग्रेज न्यायाधीशों में रोष फैला दिया । लेख की भाषा भी काफी तीक्ष्ण और तीखी थी। यह न्यायतंत्र पर और विशेषतया उच्च न्यायालय के सदस्य पर, वह भी एक अंग्रेज न्यायाधीश पर, सीधा प्रहार था ।

सन् 1883के उस काल में इस बात को चुपचाप पी जाना संभव नहीं था और अंग्रेज न्यायाधीश स्वयं पर संयम न रख पाये ।  3 मई 1883 को सुरेन्द्रनाथ बनर्जी और रामकुमार डे (Ramkumar Dey) ('द बंगाली' पत्र के प्रकाशक और मुद्रक) को उच्च न्यायालय द्वारा अदालत की अवमानना का नोटिस जारी किया गया और उन्हें आदेश दिया गया कि 4 मई 1883 को, अर्थात एक दिन के भीतर वे यह बताएं कि उन्होंने ऐसा क्यों किया । इस नोटिस में पूछा गया था कि न्यायाधीश श्री नौरिस के बारे में ऐसा निंदापूर्ण और अपमानजनक लेख लिखने और छापने के लिए उन्हें जेल क्यों न भेजा जाये, या मानहानि के लिए कानून सजा क्यों न दी जाये । उन्हें अपने जवाब और हलफनामे फौरन जमा करने को कहा गया ।

रामकुमार डे ने अपने हलफनामे में लेख के संबंध में अपनी किसी भूमिका से इंकार किया और सारा उत्तरदायित्व सुरेन्द्रनाथ बनर्जी पर डाल दिया । उन्होंने कहा कि पत्र में छपने वाली सामग्री से न तो उनका कोई सरोकार है और न ही उन्हें उसमें किसी लेख को छापने या न छापने का निर्णय लेने का अधिकार है । उन्होंने यह भी कहा कि अंग्रेजी भाषा की बारीकियों का पूरा ज्ञान उन्हें नहीं है और वह अंग्रेजी में शब्दों को मुद्रित तो करते हैं, लेकिन उनके अर्थ भली-भांति नहीं समझते । उन्होंने आगे कहा कि अगर उक्त लेख में निंदापूर्ण और अपमानजनक बातें हैं, तो उन्हें इसकी कोई जानकारी नहीं थी और जहां तक उनका सवाल है, वह पत्र के प्रकाशन और मुद्रक होने के कारण उक्त लेख के लिए माफी मांगने को तैयार हैं । उन्होंने अदालत से आग्रह किया कि वह उनके मामले में अनुकूल दृष्टि से विचार करे ।

सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने अपने हलफनामे में स्वीकार किया कि उनका लेख कुछ गलत सूचनाओं पर आधारित था । उन्होंने उसके लिए क्षमायाचना की, लेकिन साथ ही, 1882 में बने 'अपराध प्रक्रिया संहिता' (क्रिमीनल प्रोसीजर कोड)( Criminal Procedure Code)से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण, प्रासंगिक विषयों की पूरी व्याख्या की । एक रात के नोटिस पर जल्दी-जल्दी तैयार किये गये हलफनामे में उन्होंने लिखा :

"इस संबंध में मुझे 'द बंगाली' पत्र का संपादक होने के कारण, एक दिन पहले अर्थात् वृहस्पतिवार, 3 मई को यह नोटिस दिया गया कि मैं शुक्रवार, 4 मई को अदालत लगने पर फौरन इसका जवाब दूं कि हम पर अदालत की अवमानना के अपराध में कानूनन कार्यवाही क्यों न की जाये । हम पर आरोप लगाया गया है कि हमने उक्त पत्र '"द बंगाली" में गत 28 अप्रैल को गैरकानूनी ढंग से एक ऐसा लेख प्रकाशित किया, जिसमें इस अदालत के एक माननीय न्यायाधीश जॉन फ्रीमैन नौरिस (Judge John Freeman Norris) के संबंध में निंदापूर्ण और अपमानजनक बातें लिखी गयी हैं । हम इसके प्रकाशन का दायित्व स्वीकार करते हैं ।"

“उक्त पत्र पूर्णतः मेरी निगरानी में निकलता है । रामकुमार डे, जो अंग्रेजी भाषा के थोड़े-बहुत परिचित हैं, इस पत्र में छपने वाली संपादकीय सामग्री पर कोई अधिकार नहीं रखते, इसलिए अगर वह चाहते भी, तो उसमें किसी लेख या अनुच्छेद को छपने से नहीं रोक सकते थे ।"

उन्होंने आगे कहा : "उक्त पत्र का 28 अप्रैल 1883 का अंक पूरी तरह मेरी जिम्मेदारी पर तैयार हुआ और छपा । मेरी स्वाधिक जानकारी, सूचना और विश्वास के अनुसार रामकुमार डे ने प्रकाशन से पहले इसके संपादकीय की सामग्री को नहीं प़ढा था ।

“मैं आगे यह कहना चाहता हूं कि श्रीमान जॉन फ्रीमैन नौरिस (Judge John Freeman Norris) को मैं इस माननीय अदालत के एक सम्मानित और विद्वान न्यायाधीश के अलावा और किसी रूप में नहीं जानता और माननीय महोदय के विषय में मैंने जो कुछ भी लिखा और छापा, वह पूर्णतः नेक इरादे से और जनता के हितों को ध्यान में रखकर किया ।“ 

"कि 28 अप्रैल 1883 को पत्र के उक्त अंक में माननीय जॉन फ्रीमैन नौरिस के संबंध में दो अनुच्छेद छपे थे, पहता पृष्ठ 194 पर-मंगलवार, 24 अप्रैल 1883 के एड नोट्स' शीर्षक के तहत और दूसरा पृष्ठ 199 पर-संपादकीय टिप्पणियों के अंतर्गत । "कि उक्त अनुच्छेदों में जिस 'ब्रह्मो पब्लिक ओपीनियन' का हवाला दिया गया है, वह कलकत्ता से हर बृहस्पतिवार छपने वाला साप्ताहिक है, जिसे जनता का पूरा विश्वास प्राप्त है और जिसमें मैं भी पूरी आस्था रखता हूं क्योंकि उसके संपादक महोदय इसी माननीय अदालत में अभिवक्ता हैं । शिकायत का आधार पहले अनुच्छेद की सामग्री मेरी सर्वाधिक सही जानकारी, सूचना और विश्वास के अनुसार वृहस्पतिवार, 19 अप्रैल 1883 को 'ब्रह्मो पब्लिक ओपीनियन' में छपी थी और उसका कोई भी खंडन या स्पष्टीकरण आज तक उक्त पत्र में, या मेरी सर्वाधिक सही जानकारी, सूचना और विश्वास के अनुसार, किसी दूसरे अखबार में नहीं छपा है ।

“शिकायत का आधार दुसरे अनुच्छेद की सामग्री 'ब्रह्मो पब्लिक ओपीनियन' के 26 अप्रैल 1883 के अंक में छपी थी और इसका कोई खंडन या स्पष्टीकरण इस पत्र या दूसरे किसी अखबार में, उक्त पत्र के उक्त अंक के प्रकाशन से पहले नहीं छपा था । कि मैं ईमानदारी से सोचता था कि उक्त 'ब्रह्मो पब्लिक ओपीनियन में छपी रिपोर्ट पूरी तरह सच है । मेरे द्वारा लिखे गये उक्त दोनों अनुच्छेद इसी विश्वास के चलते जनता के प्रति कर्तव्य-भावना से प्रेरित होकर लिखे गये थे, ताकि माननीय न्यायाधीश जॉन फ्रीमैन नौरिस के तथाकथित आचरण को जनता के सामने लाया जाये और उसकी निंदा की जाये ।

"सहायक रजिस्ट्रार श्री विलियम राबर्ट फिंक (Assistant Registrar Mr. William Robert Fink), माननीय अदालत के मुख्य कलर्क और माननीय अदालत के एक दुभाषिए बाबू बेनी माधव मुखर्जी के हलफनामा से जिनकी सच्चाई मैं पूरी तरह, बेहिचक स्वीकार करता हूं-अब मुझे पता चला है कि उक्त ' ब्रह्मो पब्लिक ओपीनियन में सालिग्राम को अदालत में पेश करने संबंधित रिपोर्ट गलत और भ्रामक थी । माननीय न्यायधीश जॉन फ्रीमैन नौरिस ने कोई जबर्दस्ती करने की कोशिश नहीं की थी, जैसा कि आरोप लगाया गया था, बल्कि उन्होंने दोनों पक्षों, जो कि हिंदू थे, के दबावों के तहत और स्पष्टतया अपनी अभिरुचि के विरुद्ध ऐसा किया था ।

"मैं इस बात पर बल देना चाहता हूं कि यदि मुझे पता होता, या इस बात पर विश्वास करने का कोई कारण रहा होता कि "ब्रह्मो पब्लिक ओपीनियन' की रिपोर्ट किसी भी अर्थ में गलत या भ्रामक है, तो मैं उक्त टिप्पणियां न करता । मुझे वाकई अफसोस है कि मैं उन्हें लिखने को बाध्य हुआ और मैं उन्हें पूरी तरह वापिस लेता हूं । लेकिन मैं इस बात को दोहराना चाहता हूं कि ये टिप्पणियां बिलकुल नेक इरादे से की गयी थीं और जनता की भलाई के अलावा उनका कोई उद्देश्य न था ।“

"ब्रिटिश भारत की जो परिस्थितियां हैं, उनमें इस माननीय अदालत ओर दूसरी प्रेसिडेंसियों के उच्च न्यायालयों को बड़े आदर के साथ देखा जाता है और मेरा मानना है कि समाज के सभी वर्गों के न्यायोचित अधिकारों और विशेषाधिकारों के सर्वाधिक निष्पक्ष, सच्चे और ईमानदार संरक्षकों के रूप में उन्हें इतना आदर देना उचित भी है । इस माननीय अदालत का कोई विद्वान, माननीय न्यायाधीश अगर इन अधिकारों और विशेषाधिकारों का अनादर करता है तो उसके आचरण को समाज द्वारा बड़ी चिंता के साथ देखा जाता है और मैं समझता हूं कि सभी पत्रकारों का यह दायित्व है कि वे ऐसा अनादर न होने दें ।“

नोटिस जारी करने में उच्च न्यायालय के अधिकार-क्षेत्र को चुनौती देते हुए उन्होंने कहा : "मुझे परामर्श दिया गया है कि इस माननीय अदालत को उक्त आदेश जारी करने और रामकुमार डे या मेरे साथ यह व्यवहार करने का कोई अधिकार नहीं है । मुझे यह भी परामर्श दिया गया है कि यह सवाल काफी मुश्किल है और मेरे हिसाब से जन-महत्व का है । मेरी राय में इस सवाल से जिस रूप में निपटा जाना चाहिए, उसके लिए काफी समय और ध्यान की जरूरत है।"

उनमें यह कहने का साहस था कि ऐसे मामलों में इतने संक्षेप में न्याय नहीं किया जा सकता । हालांकि उन्होंने अपने लिखे के लिए क्षमा मांग ली थी और अदालत से थोड़ा समय और चाहा था, उन्हें वह समय दिया नहीं गया और 4/5 मई 1883 को यह मुकदमा मुख्य न्यायाधीश गार्थ और उच्च न्यायालय के चार अन्य न्यायाधीशों-न्यायाधीश मित्तर, न्यायाधीश कनिंघम, न्यायाधीश मैकडोनल और न्यायाधीश नौरिस-के सामने प्रस्तुत किया गया । दोनों अभियुक्त भी अदालत में उपस्थित थे ।

मुख्य न्यायाधीश ने न्यायाधीश कनिंधम (Chief Justice Justice Kanindhaam), न्यायाधीश मैकडोनल और न्यायाधीश नौरिस (Judge McDonnell and Judge Norris) की सहमति से अदालत का जो निर्णय दिया, वह ऐसे मामलों में अंग्रेज न्यायाधीशों की संवेदनशुन्यता और कठोरता का प्रमाण है ।

4 मई 1883 को अदालत में उठाये गये इस मुकदमे का अगले ही दिन फैसला सुना दिया गया । मुख्य न्यायाधीश ने फैसला सुनाते हुए कहा : "बाबू सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, तुम्हें 'द बंगाली' पत्र में, जिसके कि तुम संपादक हो, इस मुकदमे के विषय अर्थात् उक्त लेख को प्रकाशित करने के कारण अदालत की अवमानना करने का दोषी पाया गया है । तुमने लेख के आरंभ में विद्वान न्यायाधीश पर अपने कर्तव्यों का पालन न करने, शालीनता और सावधानी की अवहेलना करने का आरोप लगाया, तुमने उनकी अंग्रेजी न्यायपीठ के दो सर्वाधिक कुख्यात, अन्यायी न्यायाधीशों से की, तुमने भारतीय जनता के सामने उन्हें अपने उच्च पद के सर्वथा अयोग्य और उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की गरिमामयी परंपराओं को बनाये रखने में स्वभाव से अक्षम घोषित किया। "ब्रह्मो पब्लिक ओपीनियन' में छपे वक्तव्यों के आधार पर तुमने उनकी सत्यता जाने बगैर, मुकदमे की परिस्थितियों की कोई जांच-पड़ताल किए बगैर, एक न्यायाधीश के आचारण पर गैर-जिम्मेदाराना टिप्पणी कर उन्हें जनता की निंदा का पात्र बनाया । इस निंदा का कोई आधार न था, बल्कि इन हलफनामों से जाहिर है (जिन्हें तुमने पूर्णतः सही कहा है) कि 'ब्रह्मो पब्लिक ओपीनियन’ में दिया गया विवरण और उस पर आधारित तुम्हारी टिप्पणियां पूर्णतः निराधार थीं ।

"यह पूर्णतया सही है कि यूरोपीय न्यायाधीश, विशेष रूप से बैरिस्टर न्यायाधीश हिंदू समाज के धार्मिक विचारों ओर भावनाओं से अधिक परिचित नहीं हैं और ऐसा अवसर आने पर ज्यादा से ज्यादा यही कर सकते हैं कि इस विषय के जानकार व्यक्तियों से सलाह करें और उनके परामर्श पर चलें । लेकिन तुम्हारे अपने हलफनामे और तुम्हारे वकील बनर्जी के वक्तव्य से स्पष्ट है कि तुम यह स्वीकार करते हो कि विद्वान न्यायाधीश ने इस मामले की सच्चाई जानने और तुम्हारे देश के लोगों की धार्मिक भावनाओं को चोट न पहुंचाने के लिए अपनी सामर्थ्यानुसार सब कुछ किया । अतः हमारे लिए यही विचार करना रह जाता है कि तुम्हें क्या दंड दिया जाये ।“

"यह सचमुच सोचनीय बात है कि तुम्हारे जैसा पद-प्रतिष्ठावान व्यक्ति, जो कभी सिविल सर्विस का सदस्य था, और अब इस शहर का सम्मानार्थ मैजिस्ट्रेट है, एक पत्र के संपादक के रूप में अपने प्रभुत्व का प्रयोग उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश की बिना किसी आधार पर निंदा करने और उस पर जनता का रोष भड़काने के लिए करता है । “

मेरा मानना है कि तुम्हारे देश की जनता भी तुम्हारे बारे में यही राय रखती होगी । अगर यह अपराध किसी युवा, अनुभवहीन, अशिक्षित या अव्यावहारिक व्यक्ति मे किया होता, या तुम्हारे साथ खड़े रामकुमार डे के स्तर और हैसियत के किसी व्यक्ति ने तो एक सीमा तक, इसके लिए अनभिज्ञता या महत्वाकांक्षा को दोषी ठहराया जा सकता था, लेकिन तुम्हें तो उच्च शिक्षा की सब सुविधाएं मिली हैं, पत्रकारिता से जुड़े व्यक्तियों के कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों के बारे में तुम्हें तो मालूम होना चाहिए था तुमने अपने हलफनामे में अपने अपराध का यह कह कर औचित्य बताने का प्रयास किया है कि न्यायाधीश श्री नौरिस पर तुम्हारे द्वारा लगाये गये आरोप 'ब्रह्मो पब्लिक ओपीनियन' की रिपोर्ट पर आधारित थे, जिन्हें तुम सही समझते थे और जिन्हें बढ़ा-चढ़ाकर तुमने इतनी सख्त टिप्पणी करने की घृष्टता की ।“

"इतना ही नहीं, यह स्वीकार करने के बाद भी, कि तुम्हारे आरोप पूर्णतया गलत और निराधार थे और तुमने उनकी सच्चाई जानने के लिए कोई प्रयास नहीं किया, तुम्हारा मानना है कि ये आरोप पूर्णतः जनता की भलाई के लिए, नेक इरादे से लगाये गये थे । तुमने अपने हलफनामे में 'ब्रह्मो पब्लिक ओपीनियन' में छपी, जिस रिपोर्ट का उल्लेख किया है, वह स्पष्टतया श्री नौरिस पर आक्षेप करती है, लेकिन उसका अदालत की इस कार्यवाही से कोई संबंध नहीं है । तुम्हारे वकील भी अदालत को यह समझाने में एकदम असफल रहे हैं कि यह लेख इस पत्र में क्योंकर शामिल किया गया। और तुम भी यह भली-भांति जानते हो कि जो हलफनामे दाखिल करने का आदेश दिया गया, उसका उस रिपोर्ट से कोई संबंध नहीं है ।

"तुम्हारे हलफनामे की यह बातें तुम्हारे अपराध को कम करने के बजाय इस अदालत की नजर में उसे बढ़ाती ही हैं ।  न्यायाधीश यह समझने में असमर्थ रहे हैं कि इतना भारी अभियोग तुम्हारे पत्र में नेक इरादे से कैसे लगाया गया । उन्हें यह मानने में भी बड़ी कठिनाई हो रही है कि तुम्हारे जैसा शिक्षित व्यक्ति, एक पत्र का संपादक, अभियोग के कानून से कैसे इतना अनजान हो सकता है कि केवल इस आधार पर एक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के आचरण और चरित्र पर इन आरोपों को प्रकाशित करे कि वे पहले किसी देशी अखबार में कम विषाक्त रूप में छप चुके हैं ।

"अदालत तुम्हारे हलफनामे पर थोड़ा लिहाज करने को तैयार है, क्योंकि तुम्हारे वकील ने बताया है कि ये हलफनामे काफी जल्दी में, बिना ज्यादा सोच-विचार के तैयार किये गये, लेकिन उपरोक्त कारणों से तुम्हारा अपराध कम नहीं हो जाता।"

निर्वाह और प्रतिसमर्थन के लिए और तुम्हारे द्वारा किये गय इतने घोर अपराध को दोबारा होने से बचाने के लिए हम यह बेदह जरूरी समझते हैं कि तुम पर जुर्माना करने की बजाय (जो तुम्हारे मामले में नाममात्र का दंड होता) तुम्हें ऐसा दंड दिया जाये, जो तुम्हारे साथ-साथ दूसरों के लिए भी चेतावनी हो । अदालत तुम्हें प्रेसिडेंसी जेल के सिविल वार्ड में दो माह के कारावास का दंड देती है ।"

भारत में ब्रिटिश न्याय व्यवस्था के इतिहास में यह पहला अवसर था जब अदालत की अवमानना के अपराध में किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति को, उसकी क्षमा-प्रार्थना और स्पष्टीकरण के बावजूद, इतनी कड़ी सजा दी गयी थी । नियम न होने पर भी प्रथा यही थी कि ऐसे अभियुक्त के बिना शर्त माफीनामे के बाद उसे चेतावनी देकर, कोई सजा दिये बगैर छोड़ दिया जाये, शर्त यह है कि अभियुक्त अपनी बात पर अड़ा न रहे या अपराध इतना भारी न हो कि उसके लिए जुर्माना कम सजा हो । न्याय-प्रदर्शन के इस ढोंग के पीछे उच्च न्यायालय का असली मकसद सुरेन्द्रनाथ बनर्जी को तो सबक सिखाना था ही, भारतीयों को यह चेतावनी देना भी सहन नहीं की जायेगी । ब्रिटिश न्यायाधीश अति पवित्र थे-न्याय से ऊपर, आलोचना से परे, कि किसी भी ब्रिटिश न्यायाधीश की आलोचना को बिना कोई दंड दिये छोड़ दिया गया । न्यायाधीश मित्तर, जिन्होंने रामकुमार असहमत होने का विरल साहस दिखाया, बहुमत की राय और दंड-निर्धारण से सहमत न हुए । इस तरह के मुकदमे में इतनी बड़ी सजा दिये जाने का उन्होंने कड़ा विरोध किया ।

मुख्य न्यायाधीश को यह अच्छा नहीं लगा। उन्होंने कहा : सदस्यों को इस बात का अफसोस है कि दंड के निर्धारण में साथी न्यायाधीश मित्तर की राय उनसे मेल नहीं खाती । विद्वान न्यायाधीश का संकेत जिस मुकदमे की तरफ है हम उससे भली-भांति परिचित हैं । लेकिन पहली बात तो यह है कि उस मुकदमे के तथ्य इस मुकदमे से काफी भिन्न हैं, और दूसरे, इंग्लैंड में अभियोग के ऐसे मुकदमों में ऐसे कई पूर्वोदाहरण मिलते हैं, जहां इससे भी कड़ी सजा दी गयी हो।"

हालांकि सुरेन्द्रनाथ बनर्जी द्वारा दाखिल किया गया हलफनामा साफ और सुस्पष्ट था, फिर भी उन्हें सबक सिखाने पर तुले न्यायाधीशों ने उसे ईमानदारी और स्पष्टवादिता से रहित बताया । यह सुपरिचित तथ्य था कि सुरेन्द्रनाथ बनर्जी सिर्फ एक अच्छे वक्ता और राजनीतिज्ञ ही नहीं, बल्कि एक जाने-माने विद्वान और अंग्रेजी भाषा के पंडित भी थे । उन्होंने अपने वकील से पूरी सलाह ली थी और उनके हलफनामे में कुछ भी अस्पष्ट न था ।

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