भारतीय दण्ड विधि मे अभियुक्त को प्राप्त संरक्षण | Protection Received By The Accused In Indian Penal Law भारतीय दण्ड विधान (Indian Penal C...
भारतीय दण्ड विधि मे अभियुक्त को प्राप्त संरक्षण | Protection Received By The Accused In Indian Penal Law
भारतीय
दण्ड विधान (Indian Penal Code) में अभियुक्त (Accused) के विरुद्ध किसी प्रकार का अन्याय न हो,
यह निश्चित करने के लिए संरक्षात्मक
सिद्धान्तों को अपनाया गया है ताकि अभियुक्त को अपनी प्रतिरक्षा का पूर्ण अवसर मिल
सके और उसे अपनी निर्दोषिता साबित करने में कठिनाई न हो
।
संक्षेप
में ये सिद्धान्त निम्नानुसार हैं –
दोहरे दण्ड का निषेध होना | Double Jeopardy | Prohibition of Double Punishment
किसी भी व्यक्ति को एक अपराध के लिए एक से अधिक बार दण्डित नहीं किया जा सकता है । यह नियम इंग्लिश कॉमन लॉ के सूत्र Nemo Debet Proaedem Causa Bis Vexari पर आधारित है जिसका अर्थ यह है की एक ही अपराध के लिए किसी व्यक्ति को दोबारा संकट में नहीं डाला जा सकता है, अर्थात् दोबारा दण्डित नहीं किया जा सकता है ।
भारतीय
विधि (Indian Law) के अन्तर्गत अभियुक्त को यह संरक्षण संविधान के अनुच्छेद 20 (2) तथा दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 300(1) के अन्तर्गत प्राप्त है
।
साधारण खण्ड अधिनियम, 1897 (General Clauses Act 1897) की धारा 26 में भी यह स्पष्ट है कि जहाँ कोई कार्य दो या अधिक अधिनियमों के अन्तर्गत दण्डनीय अपराध हो, तो उस दशा में अपराधी को उनमें से किसी एक अधिनियम के अन्तर्गत ही दण्डित किया जा सकेगा, न कि उसी अपराध के लिए पुनः किसी दूसरे अधिनियम के अन्तर्गत ।

अभियुक्त की निर्दोषिता की धारणा । Presumption of Innocence of The Accused
आपराधिक
विधि (Criminal Law) का यह मूलभूत सिद्धान्त है कि व्यक्ति को तब तक निर्दोष माना जाएगा,
जब तक कि उसका दोष (अपराध) सिद्ध नहीं हो जाता
है । इसका
अर्थ यह हुआ कि यदि अभियोजन अभियुक्त का अपराध साबित करने में विफल रहता है, तो न्यायालय अभियुक्त को दोषमुक्त कर
देगा ।
आत्म-अभिशंसन । Self-Incrimination
आत्म-अभिशंसन (Self-Incrimination) के सिद्धान्त के अनुसार अभियुक्त को स्वयं के विरुद्ध साक्ष्य (Evidence) देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है, साधारण भाषा मे अभियुक्त को अपने गुनाह मनाने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है । भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20(3) में यह स्पष्ट है कि किसी भी अभियुक्त को स्वयं के विरुद्ध साक्षी होने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा । अभियुक्त यदि चाहे, तो स्वयं के विरुद्ध साक्ष्य दे सकता है या अपने अपराध की संस्वीकृति (Confession) लिखवा सकता है ।
विधिक सहायता का अधिकार । Right to Legal Aid
आपराधिक
विधि का एक सिद्धान्त यह भी है कि अभियुक्त को अपनी प्रतिरक्षा या बचाव का पूर्ण
अवसर दिया जाना चाहिए, ताकि उस पर विचार उचित एवं निष्पक्षता से हो सके । इसीलिए किसी फरार हुए अभियुक्त पर विचार प्राय: तब तक
प्रारम्भ नहीं किया जाता, जब तक कि उसे न्यायालय में प्रस्तुत नहीं किया जाता है । दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 303
(Criminal Procedure Code Section 303) में यह स्पष्ट है कि न्यायालय के समक्ष विचार के लिए लाए गए प्रत्येक
अभियुक्त को अपनी पसन्द के अधिवक्ता (Attorney) द्वारा स्वयं का बचाव प्रस्तुत करने का अधिकार प्राप्त है ।
यदि
अभियुक्त आर्थिक गरीबी के कारण अपने बचाव के लिए अधिवक्ता (Attorney) को सेवाएँ लेने में असमर्थ हो, तो राज्य उसे अपनी ओर से निःशुल्क विधिक सहायता
उपलब्ध कराएगा ।
न्यायालय ने अभिकथन किया कि किसी निर्धन, अनभिज्ञ तथा अशिक्षित अभियुक्त से यह अपेक्षा करना कि
वह निःशुल्क विधिक सहायता हेतु आवेदन करे, विधिक सहायता कार्यक्रम के मूल उद्देश्य को ही समाप्त कर देगा । वस्तुतः विचारण न्यायालय का यह कर्तव्य है कि वह ऐसे
अभियुक्त का विचारण प्रारम्भ करने के पूर्व यह सुनिश्चित कर ले कि उसे आवश्यक
निःशुल्क विधिक सहायता उपलब्ध है ।
हुसैन
बनाम केरल राज्य (Hussain vs State of Kerala) के वाद में अपर्याप्त विधिक प्रतिनिधित्व के
कारण अभियुक्त की दोषसिद्धि को दोषपूर्ण मानते हुए उच्चतम न्यायालय ने उसे
दोषमुक्त कर दिया तथा अभिकथन किया कि पिटीशनर की दोषसिद्धि दोषपूर्ण होने के कारण
उसे व्यर्थ ही कारावास का कष्ट भोगना पड़ा जिसके लिए वह उचित प्रतिकर प्राप्त करने
का हकदार है ।
सुकदास
बनाम अरुणाचल प्रदेश (Sukdas vs Arunachal Pradesh), के वाद में अपीलार्थी एक शासकीय कर्मचारी था, जिसे भा.द.सं. की धारा 506/34 के अपराध के लिए दो वर्ष के कारावास की दण्ड दी गई थी ।
गरीबी के कारण विचारण न्यायालय के समक्ष उसकी ओर से
कोई अधिवक्ता (Attorney) पैरवी करने उपस्थित नहीं था
। विधिक सहायता के अभाव में उसने अपनी दोषसिद्धि
के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील की, लेकिन
उच्च न्यायालय ने उसके दण्डादेश में किसी प्रकार से हस्तक्षेप करने से इस आधार पर
इन्कार कर दिया कि उसने विधिक सहायता के लिए कोई आवेदन ही नहीं किया था
। विशेष
अनुमति से अपील उच्चतम न्यायालय में प्रस्तुत की गई
। उच्चतम न्यायालय ने निश्चित किया कि धनहानि तथा
आर्थिक रूप से अक्षम व्यक्ति को राज्य के खर्च पर निःशुल्क विधिक सहायता उपलब्ध
कराई जाना उस व्यक्ति का मूल अधिकार है, जो उसे संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा प्रदत्त किया गया है
। इस मूल अधिकार का प्रयोग इस शर्त पर आधारित
नहीं है कि अभियुक्त निःशुल्क विधिक सहायता के
लिए आवेदन करे
। अतः उसे केवल इस आधार पर निःशुल्क विधिक सहायता
प्राप्त करने के अधिकार से वंचित नहीं रखा जा सकता कि उसने इस हेतु आवेदन नहीं
किया था ।
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