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बाल गंगाधर तिलक का मुकदमा | Bal Gangadhar Tilak Case

 बाल गंगाधर तिलक का मुकदमा | Bal Gangadhar Tilak Case सन्‌ : 1908 लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ( Bal Gangadhar Tilak ) के सन् 1905 और 1908...

 बाल गंगाधर तिलक का मुकदमा | Bal Gangadhar Tilak Case



सन्‌ : 1908


लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक (Bal Gangadhar Tilak) के सन् 1905 और 1908 के मुकदमों के ऐतिहासिक महत्व और राजनीतिक परिणाम को कम करके आंकना संभव नहीं है । ब्रिटिश सरकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचलना चाहती थी और हुकूमत गिराने वाले किसी भी संगठित प्रयास का निर्दयतापूर्वक दमन करने को तैयार थी । दमन और शोषण के खिलाफ आवाज उठाने वालों को दंड देने के लिए उसने 'भारतीय दंड संहिता' (इंडियन पीनल कोड)(Indian Penal Code), राजद्रोह कानून (Sedition Law) और 'अपराध प्रक्रिया संहिता' (Code of Criminal Procedure) का मनमाना इस्तेमाल किया ।

 

लार्ड कर्जन (George Curzon) द्वारा सन् 1905 में बंगाल के विभाजन ने बंगाल और पूरे देश में उग्र विरोध-प्रदर्शनों को जन्म दिया अपना विरोध दिखाने के लिए हिंसक और अहिंसक तरीके अपनाए गये बिहार में मुजफ्फरपुर के बम-विस्फोट में दो ब्रिटिश महिलाओं की मृत्य के बाद अभूतपूर्व पैमाने पर निष्ठुर दमन का दौर शुरू हुआ किसी को भी छोड़ा नहीं गया अंग्रेज शासकों ने निर्दोष लोगों की जान ली, उन्हें पकड़कर जेलों में बंद किया और यातनाएं दीं

 

भारतीय जनता को शिक्षित करने और जन-सम्मति तैयार करने के उद्देश्य से बाल गंगाधर तिलक ने पुणे में 'केसरी' नामक मराठी साप्ताहिक निकाला और उसके कई अंकों के संपादकीयों में अंग्रेजों की दमनकारी कार्यवाही और उसके नतीजों की आलोचना की यह बहुत हिम्मत का काम था क्योंकि किसी भी राष्ट्रीय विरोध प्रदर्शन और गतिविधि या राज द्वारा उसके दमन की खबरें छापने पर कठोर प्रतिबंध था ऐसे चार संपादकीय थे देश का दुर्भाग्य', 'दोहरी चेतावनी-बम विस्फोट का क्या मतलब है', 'संकट' और ये उपाय काफी नहीं हैं इनसे शुरू हुआ-तिलक को नोटिस जारी करना, उनकी प्रेस और घर की तलाशी लेना और राजद्रोह के जुर्म में उनकी गिरफ्तारी का दौर

 

बंबई उच्च न्यायालय (Bombay High Court) में तीन सप्ताह तक चले मुकदमे में अंग्रेज जूरी द्वारा तिलक को राजद्रोह के अपराध का दोषी पाया गया तिलक ने अपना मुकदमा खुद लड़ा दंड का स्वागत करते हुए कहे गए उनके शब्द आज अमर हो चुके हैं और बंबई उच्च न्यायालय के उस केद्रीय कक्ष में एक पट्टी पर अकित हैं, जहां उन पर मुकदमा चलाकर उन्हें दंडित किया गया था ।

 

तिलक ने कहा था : "मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि जूरी के निर्णय के बावजूद मैं खुद को बेगुनाह मानता हूं । वस्तुओं की नियति को उच्च शक्तियां निर्धारित करती हैं और हो सकता है कि परमात्मा की यही इच्छा हो कि जिस वस्तु के लिए मैं लड़ रहा हूं, वह मेरे जेल से बाहर रहने के बजाय मेरे तकलीफ उठाने पर अधिक फूले-फले ।"

 

भारतीय न्यायिक मुकदमों के इतिहास में इस मुकदमे का कोई जोड़ नहीं है । बंबई उच्च न्यायालय के केंद्रीय कक्ष में इस पट्टी का अनावरण करते हुए बंबई के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश श्रीमान एम.सी. चागला ने कहा था : "लोकमान्य तिलक की स्मृति में आज सुबह इस पट्टी के अनावरण का जो सौभाग्य मुझे मिला है, उसकी तुलना किसी और सम्मान या प्रतिष्ठा से नहीं की जा सकती । 12 साल की अवधि में दो बार, इसी कक्ष में लोकमान्य तिलक अभियुक्त के कठघरे में खड़े हुए थे और दोनों ही बार उन्हें कारावास का दंड सुनाया गया था । भारत के इस महान और विख्यात सपूत को इन सजाओं द्वारा जो तकलीफ दी गयी, उसका प्रायश्चित करने के लिए आज हम यहां उपस्थित हुए हैं । अपने इतिहास पर लगा हुआ यह धब्बा आज हम मिटा देना चाहते हैं । कहा जा सकता है कि ये दंड न्याय का तकनीकी अनुपालन भर थे, लेकिन हम इस पर बल देना चाहते हैं कि वे वास्तविक न्याय का घोर निषेध थे। तिलक को देशप्रेम के अपराध के लिए दंडित किया गया था । उन्हें अपनी जिंदगी या अपनी आजादी से भी ज्यादा अपने देश को चाहने के अपराध के लिए दंडित किया गया था । देवियों और सज्जनों, हमारे समकालीन हम पर जो फैसले सुनाते हैं, हमारा समय हम पर जो निर्णय सुनाता है, उसका अधिक मूल्य नहीं होता । मूल्यवान होता है इतिहास का अपरिहार्य निर्णय और इतिहास का अपरिहार्य निर्णय यह है कि आजादी और देशप्रेम की आवाज दबाने वाली ये दोनों सजाएं निंदनीय हैं। लोकमान्य तिलक ने जो भी किया वह अपने देश के लिए लड़ने वाले हर व्यक्ति का न्यायसम्मत अधिकार है । ये दोनों सजाएं इतिहास के अंधेरे में विस्मृत हो चुकीं हैं और तिलक की ख्याति और दीप्ति वक्त गुजरने के साथ-साथ बढ़ती गयी है... ।"

 

तिलक पर तीन बार मुकदमे चलाए गये : पहला सन् 1897 में, भारतीय दंड संहिता की धारा 124-ए के अंतर्गत 'केसरी' में एक लेख छापने पर, जिसके लिए उन्हें 18 महीने के कठोर कारावास का दंड सुनाया गया, उन्होंने प्रिवी काउंसिल में अपील करने के लिए उच्च न्यायालय से अनुमति चाही लेकिन उन्हें यह अनुमति प्रदान नहीं की गयी, उन्होंने फिर प्रिवी काउंसिल से अपील करने की विशेष अनुमति पाने के लिए अर्जी दी और श्री अस्क्विय, जो कालांतर में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बने, उसमें उपस्थित हुए । लेकिन प्रिवी काउंसिल द्वारा यह अर्जी अस्वीकार कर दी गयी । तिलक को जेल में ही रखा गया ।

दूसरा मुकदमा न्यायाधीश डावर जे. के समक्ष सन् 1908 में पेश हुआ जहां तिलक पर 'केसरी' में छपे कुछ लेखों के लिए राजद्रोह का आरोप लगाया गया, इन लेखों में तिलक ने बिहार में मुजफ्फरपुर में बंगाली आतंकवादियों द्वारा किए गये बम विस्फोट को न्यायोचित ठहराते हुए कहा था कि भारतीयों को अपना विरोध प्रकट करने के लिए यह रास्ता अपनाने का अधिकार है । तिलक पर 124-ए धारा के अंतर्गत एक लंबा मुकदमा चलाया गया ।

 

तिलक ने अपनी सफाई में एक बढिया बचावनामा लिखा जो ऐतिहासिक महत्व का दस्तावेज हैं । यही वह मुकदमा था, जिसमें न्यायाधीश द्वारा यह पूछे जाने पर कि क्या उन्हें अपनी सफाई में कुछ कहना है, तिलक ने वे यादगार शब्द कहे थे, जो इस कक्ष के प्रवेशद्वार पर एक पट्टी पर अंकित हैं । इस मुकदमे में तिलक को 6 साल के लिए बर्मा में मांडले में निर्वासित कर दिया गया और 1000 रुपए का जुर्माना किया गया ।

 

तिलक पर तीसरा मुकदमा सन् 1916 में, उनके 6 वर्ष के निर्वासन की सजा पुरी होने के बाद चलाया गया । इस मुकदमे में भी उन पर राजद्रोह का आरोप था, लेकिन कोई दंड नहीं दिया गया । सन् 1908 का दूसरा मुकदमा ऐतिहासिक महत्व का है क्योंकि वह आपराधिक विधिशास्त्र में अपना विशेष रथान रखता है । तिलक को गिरफ्तार कर आरोपों की प्रारंभिक सुनवाई के लिए बंबई के एस्प्लेनेड कोर्ट में एक मजिस्ट्रेट के सामने लाया गया । प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट श्री ए.एच.एस. एस्टन के सम्मुख भारतीय दंड संहिता की धाराओं- 124-ए और 153-ए के अंतर्गत उन पर जनता को उकसाने और राजद्रोह भड़काने का आरोप लगाया गया ।

 

प्रारंभिक सुनवाई में यह सवाल उठाया गया कि इन दो आरोपों के संबंध में दो अलग मुकदमे चलाए जायें या एक ही मुकदमा हो । तिलक के वकील ने एक मुकदमे के पक्ष में जिरह की । सरकारी वकील ने दो अलग मुकदमों के लिए दबाव डाला और मजिस्ट्रेट के पास सरकारी दृष्टिकोण के अनुसार दो मुकदमों का आदेश देने के अलावा कोई चारा न था । तिलक को उच्च न्यायालय के सुपुर्द कर दिया गया, जहां उस जमाने में ऐसे मुकदमें चलाए जाते थे ।

 

तिलक को गिरफ्तार करने के बाद जेल में डाल दिया गया था और उन्हें जमानत नहीं दी गयी थी । एम.ए. जिन्ना (उस समय के राष्ट्रीय नेता, जो कालांतर में वर्तमान पाकिस्तान के निर्माता बने) ने उनकी जमानत की अर्जी पर बहस करते हुए कहा कि तिलक के मधुमेह का इलाज हो रहा है तथा 'केसरी' के वे लेख जिनके आधार पर आरोप लगाए गए थे, अनुवाद की गलतियों और अशुद्धियों से परिपूर्ण थे । उनके सही अनुवाद कर अदालत में पेश करने के लिए और तिलक द्वारा अपना बचावनामा तैयार करने के लिए उन्हें जमानत पर रिहा करना न्यायोचित और सही था । उन्होंने न्यायाधीश को विश्वास दिलाया कि सुनवाई के दिन अदालत में उपस्थित होने के लिए तिलक पर विश्वास किया जा सकता है । श्री जिन्ना ने न्यायाधीश का श्रीमान न्यायाधीश तैयुवजी के पूर्ववर्ती निर्णय की ओर ध्यान दिलाया, जहां ऐसे ही मुकदमे में जमानत दी गयी थी । उन्होंने तर्क दिया कि उनकी जानकारी में राजनीतिक कार्यकर्ताओं के प्रति सरकार के दृष्टिकोण में इस बीच कोई परिवर्तन नहीं आया है और राजनीतिक मुकदमों में न्याय व्यवस्था ऐसे पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं थी ।

 

न्यायाधीश श्री डावर ने फिर भी जमानत देने से इंकार किया । यह एक दिलचस्प संयोग है कि यह वही डावर थे जिन्होंने एक दशक पूर्व, 1897 में, एक बैरिस्टर के रूप में तिलक के लिए जमानत ली थी । इस बीच उनकी पदोन्नति न्यायपीठ तक हो गयी थी और वह एक आदर्श के लिए लड़ने वाले वकील के बजाय ब्रिटिश अदालत के न्यायाधीश बन चुके थे । जैसा कि बेकन ने कहा था-"जब एक वकील न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठता है, तो वह दूसरा ही आदमी बन जाता है । सन् 1908 के न्यायाधीश श्री डावर उस व्यक्ति से पूर्णतः भिन्न थे, जिसने 1897 में तिलक की पैरवी की थी ।

 

'केसरी' क्योंकि पुणे से छपता था, इसलिए मुकदमा भी वहीं होना चाहिए था, लेकिन सरकार जनता के जुलूसों के भय से मुकदमे को पुणे से बंबई ले गयी । फिर, पुणे में अभियुक्त द्वारा मराठी जानने वाले न्यायाधीश और मराठी समर्थक प्राप्त किए जा सकते थे । सब तरफ भय और आतंक का माहौल था । तिलक अपनी पैरवी के लिए किसी वरिष्ठ वकील को नियुक्त नहीं कर सके और न ही कोई उनकी पैरवी करने के लिए सामने आया । तिलक की गिरफ्तारी के बाद उनके प्रमुख सहयोगी केतकर को बंबई के पत्रों में मुकदमे को छपवाने तक में काफी दिक्कत हुई क्योंकि सभी अंग्रेजों को नाराज करने से डरते थे ।

 

ऐसी हालत में तिलक के पास अपना मुकदमा खुद लड़ने के अलावा और कोई चारा न था । हालांकि तिलक कोई क्रांतिकारी न थे और हिंसक तरीकों में विश्वास नहीं करते थे, फिर भी उन्हें गिरफ्तार कर कड़ी सुरक्षा-व्यवस्था में रखा गया । सुपुर्दगी के बाद उन्हें बंबई की डोंगरी जेल में रखा गया था अपने प्रिय नेता को एक नजर देखने के लिए अभूतपूर्व भीड़ उमड़ आयी थी जिसे नियोजित करने के लिए सरकार ने अपनी सेना का इस्तेमाल किया । इतने समर्थकों की भीड़ के विरोध के भय से प्रशासन ने तिलक को रात के अंधेरे में डोंगरी जेल से निकालकर उच्च न्यायालय की इमारत में लाने का निर्णय किया और उन्हें इमारत की ऊपरी मंजिल में छोटे-से कमरे में एकांत कारावास में रखा । मुकदमा खत्म होने तक यही उनका निवास था । सरकार उन्हें कोई भी सुविधा (वकील या जूरी की मदद) देने तक को तैयार न हुई और तिलक के विरुद्ध उन्होंने मुकदमे को मनमाने ढंग से बंबई हाई कोर्ट में स्थानांतरित कर दिया ।

 

जूरी की प्रकृति के संबंध में भी विवाद उठ खड़ा हुआ था। तिलक के लिए सजा निश्चित करने के उद्देश्य से सरकार उनके मुकदमे में एक विशेष जूरी चाहती थी । बैरिस्टर जोसेफ बप्तिस्ता ने विशेष जूरी गठित करने के सरकारी आग्रह के खिलाफ अच्छी जिरह की । उनका तर्क यह था कि विशेष जुरी के सदस्य अधिकतर यूरोपीय और एंग्लो-इंडियन व्यक्ति होंगे, जो तथाकथित आपत्तिजनक लेखों की मूल मराठी भाषा से परिचित नहीं होंगे । अतः वे आरंभ से ही, अपने समुदाय के खिलाफ तथाकथित आक्रमण से तिलक के प्रति पूर्वाग्रह बना लेंगे । उन्होंने कहा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 153-ए के अंतर्गत जनता को भड़काने के आरोप के मामले में यूरोपीय और एंग्लो-इंडियन लोगों की विशेष जूरी का गठन करना न्याय का उपहास होगा । लेकिन, न्यायाधीश ने इन सभी कानूनी तर्कों को दरकिनारे कर वह फैसला किया कि मुकदमा यूरोपीय और एंग्लो-इडियन लोगों की विशेष जूरी की मदद से 13 जुलाई 1908 को शुरू होगा । अतः मुकदमे के आरंभ से पहले ही नतीजा सबको मालूम था तिलक के जीवनी-लेखक श्री धनंजय कीर ने लिखा है कि "माहौल आशंका और पूर्वाभास से भरा था । तिलक तंगी की हालत से गुजर रहे थे। पूर्ववर्ती ताई महाराज मुकदमे (पुणे के एक व्यक्तिगत मुकदमे) ने पहले ही उनके आर्थिक साधनों को सोख लिया था । भय उन्हें परेशान कर रहा था।"

 

तिलक पर 'देश का दुर्भाग्य' लेख के लिए धारा 124-ए और 'ये उपाय काफी नहीं हैंलेख के लिए धारा 153-ए के अंतर्गत दो अलग आपराधिक मुकदमे चलाए गये । दोनों ही लेख 'केसरी' में छपे थे । बंबई उच्च न्यायालय की इमारत के केंद्रीय कक्ष शुरू हुआ । अदालत के उक्त कक्ष में प्रवेश करने वाले हर व्यक्ति को कड़ी सुरक्षा-जांच से गुजरना पड़ा । तिलक की तरफ खापड़े, कारंदीकर, बप्तिस्ता, केलकर, बोडस और दूसरे प्रमुख वकील कार्यवाही को देखने और तिलक की सहायता करने के उद्देश्य से बैठे । दूसरी तरफ एडवोकेट जनरल श्री ब्रेन्सन, बार-एट-ला श्री इन्वीरेरिटी और सरकारी अभियोक्ता श्री व्युनिंग ने अपने स्थान ग्रहण किये । तिलक को, जिन्होंने अपना मुकदमा खुद लड़ने का निश्चय किया था, मुकदमा शुरू होने से थोड़े ही समय पहले उनकी कोठरी से केंद्रीय 13 जुलाई 1908 को मुकदमा कक्ष में लाकर बिठाया गया ।

 

विशेष जूरी के नौ सदस्यों में से छह यूरोपीय, एक यहूदी और दो फारसी थे । तिलक को कठघरे में खड़ा कर उनके खिलाफ लगाए गये अभियोग पढ़े गये ।

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